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अध्याय ८ सूत्र १
६१६ ६-वीतरागदेवकी प्रतिमाके दर्शन-पूजनादिके शुभरागको धर्मानुराग कहते है, परन्तु वह धर्म नही है, धर्म तो निरावलम्बी है, जब देवशास्त्र-गुरुके अवलम्बनसे छूटकर शुद्ध श्रद्धा द्वारा स्वभावका आश्रय करता है तब धर्म प्रगट होता है । यदि उस शुभरागको धर्म माने तो उस शुभ भावके स्वरूपकी विपरीत मान्यता होनेसे विपरीत मिथ्यात्व है।
छ? अध्यायके १३ वें सूत्रकी टोकामें अवर्णवादके स्वरूपका वर्णन किया है उसका समावेश विपरीत मिथ्यात्वमे होता है।
(३) संशय मिथ्यात्व-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रको मोक्षमार्ग कहा है, यही सच्चा मोक्षमार्ग होगा या अन्य समस्त मतोंमें भिन्न २ मार्ग बतलाया है, वह सच्चा मार्ग होगा? उनके वचनमे परस्पर विरुद्धता है और कोई प्रत्यक्ष जाननेवाला सर्वज्ञ नही है; परस्पर एक दूसरेके शास्त्र नही मिलते, इसीलिये कोई निश्चय (-निर्णय) नही हो सकता, इत्यादि प्रकारका जो अभिप्राय है सो सशय मिथ्यात्व है।
(४) विनय मिथ्यात्व-१-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप-संयम ध्यानादिके विना मात्र गुरु पूजनादिक विनयसे ही मुक्ति होगी ऐसा मानना सो विनयमिथ्यात्व है, २-सर्व देव, सर्व शास्त्र, समस्त मत तथा समस्त भेष धारण करनेवालोंको समान मानकर उन सभोका विनय करना सो विनय मिथ्यात्व है और ३-ऐसा मानना कि विनय मात्रसे हो अपना कल्याण हो जायगा सो विनय मिथ्यात्व है । ४-संसारमे जितने देव पूजे जाते हैं और जितने शास्त्र या दर्शन प्रचलित हैं वे सब सुखदाई हैं, उनमें भेद नही है, उन सबसे मुक्ति ( अर्थात् आत्मकल्याणकी प्राप्ति ) हो सकती है ऐसी जो मान्यता है सो विनय मिथ्यात्व है और इस मान्यतावाला जीव वैनयिक मिथ्यादृष्टि है।
गुरण ग्रहणकी अपेक्षासे अनेक धर्ममे प्रवृत्ति करना अर्थात् सत्असत्का विवेक किये बिना सच्चे तथा खोटे सभी धर्मोको समान रूपसे जानकर उनके सेवन करनेमे अज्ञानकी मुख्यता नहीं है किन्तु विनयके अतिरेककी मुख्यता है इसीलिये उसे विनय मिथ्यात्व कहते है।