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मोक्षशास्त्र
अर्थ — इसलिये सूत्रमें तत्त्वार्थका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन माना गया है और वे तत्त्व भी जीवाजीवादिरूपसे नव हैं, अतः क्रमानुसार उन नव पदार्थोंका कथन करना चाहिये ।
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इसलिये इस शास्त्रका 'सूत्र में' निश्चय सम्यग्दर्शनका ही लक्षण है, व्यवहार सम्यग्दर्शनका नही ऐसा निश्चय करना ।
दूसरे सूत्रका सिद्धान्त
संसार-समुद्रसे रत्नत्रयरूपी ( सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूपी) जहाज को पार करनेके लिये सम्यग्दर्शन चतुर नाविक है । जो जीव सम्यग्दर्शन को प्रगट करता है वह अनंत सुखको पाता है । जिस जीवके सम्यग्दर्शन नही है वह यदि पुण्य करे तो भी अनंत दुःख भोगता है; इसलिये जीवों को वास्तविक सुख प्राप्त करनेके लिये तत्त्वका स्वरूप यथार्थ समझकर सम्यग्दर्शन प्रगट करना चाहिये । तत्त्वका स्वरूप समझे बिना किसी जीवको सम्यग्दर्शन नही होता । जो जीव तत्त्वके स्वरूपको यथार्थतया समझता है उसे सम्यग्दर्शन होता ही है-इसे यह सूत्र प्रतिपादित करता है ॥ २ ॥ निश्चय सम्यग्दर्शनके ( उत्पत्तिकी अपेक्षासे) भेदतन्निसर्गादधिगमाद्वा ॥ ३ ॥
अर्थ - [ तत् ] वह सम्यग्दर्शन [ निसर्गात् ] स्वभावसे [ वा ] अथवा [ श्रधिगमात् ] दूसरेके उपदेशादिसे उत्पन्न होता है ।
टीका
( १ ) उत्पत्तिकी अपेक्षासे सम्यग्दर्शनके दो भेद हैं- ( १ ) निसर्गज, (२) अधिगमज ।
निसर्गज -जो दूसरेके उपदेशादिके बिना स्वयमेव (पूर्ण संस्कारसे) उत्पन्न होता है उसे निसर्गज सम्यग्दर्शन कहते है ।
अधिगमज – जो सम्यग्दर्शन परके उपदेशादिसे उत्पन्न होता है उसे अधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं ।