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अध्याय १ सूत्र २ बहुरि यहाँ सम्यक्त्वका लक्षण तत्त्वार्थ श्रद्धान कह्या है सो भावनिक्षेपकरि कया है। सो गुण सहित सांचा तत्त्वार्थ श्रद्धान मिथ्यादृष्टिके कदाचित् न होय । बहुरि आत्मज्ञान शून्य तत्त्वार्थ श्रद्वान कह्या है तहां सोई अर्थ जानना । सांचा जीव अजीवादिकका जाके श्रद्धान होय, ताकै आत्मज्ञान कैसें न होय ? होय ही होय । ऐसे कोई मिथ्यादृष्टिके सांचा तत्त्वार्थ श्रद्धान सर्वथा न पाइए है, तात तिस लक्षण विर्षे अतिव्याप्ति दूषण न लाग है।
बहुरि जो यहु तत्त्वार्थ श्रद्धान लक्षण कह्या, सो असंभवी भी नाही है । जाते सम्यक्त्वका प्रतिपक्षी मिथ्यात्व ही है यहु नाही। वाका लक्षण इसतै विपरीतता लिए है ऐसे अव्याप्ति अतिव्याप्ति, असंभविपनाकरि रहित सर्व सम्यग्दृष्टिनि विर्षे तो पाइये पर कोई मिथ्यादृष्टि विष न पाइएऐसा सम्यग्दर्शनका सांचा लक्षण तत्त्वार्थ श्रद्धान है।
(मो० मा० प्र० अ० ६ पृ० ४७५ से ४७७ ) पंचाध्यायी भाग २ मे कहा है कि
ततोऽनन्तरं तेभ्यः किंचिच्छुद्धमनीदृशम् ।
शुद्ध नवपदान्येव तद्विकाराइते परम् ।। १८६ ॥
अर्थ-इसलिये शुद्धतत्त्व कुछ उन नव तत्त्वोंसे विलक्षण अर्थान्तर नही है किन्तु केवल नवतत्त्व सम्बन्धी विकारोंको छोड़कर नवतत्त्व ही
भावार्थ- इसलिये सिद्ध होता है कि केवल विकारकी उपेक्षा करने से नवतत्त्व ही शुद्ध जीव है। नवतत्त्वो से कुछ सर्नथा भिन्न शुद्धत्व नही है।
अतस्तत्त्वार्थ श्रद्धानं सूत्रे सद्दर्शनं मतम् । तत्तत्त्वं नव जीवाचा यथोद्देश्याः क्रमादपि ॥१८७।।