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अध्याय ७ सूत्र १ तरह अज्ञानीका शुभभाव तो अशुभभावका (-पापका ) परम्परा कारण कहा जाता है अर्थात् वह शुभको दूर कर जव अशुभरूपसे परिणमता है तव पूर्वका जो शुभभाव दूर हुआ उसे अशुभभावका परम्परासे कारण हुआ कहा जाता है।
___ इतनी भूमिका लक्षमें रखकर इस अध्यायके सूत्रों में रहे हुये भाव बराबर समझनेसे वस्तु स्वरूपको भूल दूर हो जाती है ।
व्रतका लक्षण हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतितम् ॥१॥
अर्थ-[ हिंसाऽनृतस्तेया ब्रह्मपरिग्रहेम्यो विरतिः ] हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह अर्थात् पदार्थोके प्रति ममत्वल्प परिणाम-इन पांच पापोसे ( बुद्धिपूर्वक ) निवृत्त होना सो [ व्रतम् ] व्रत है ।
टीका १. इस अध्यायमें पासव तत्त्वका निरूपण किया है। छ अध्याय के १२ वें सूत्रमे कहा था कि व्रतीके प्रति जो अनुकम्पा है सो सातावेदनीयके प्रास्रवका कारण है, किन्तु वहां मूल सूत्रमें व्रतीकी व्याख्या नहीं की गई थी, इसीलिये यहाँ इस सूत्रमे व्रतका लक्षण दिया गया है। इस अध्यायके १८ वें सूत्रमे कहा है कि "निःशल्यो व्रती"-मिथ्यादर्शन आदि शल्यरहित ही जीव व्रती होता है, अर्थात् मिथ्यादृष्टिके कभी व्रत होते ही नहीं, सम्यग्दृष्टि जीवके ही व्रत हो सकते हैं। भगवानने मिथ्यादृष्टिके शुभरागरूप व्रतको वालव्रत कहा है । ( देखो श्री समयसार गाथा १५२ तथा उसकी टीका 'वाल' का अर्थ मज्ञान है।
इस अध्यायमे महाव्रत और अणुव्रत भी आस्रवरूप कहे हैं, इसलिये वे उपादेय कैसे हो सकते हैं ? आस्रव तो बन्धका ही साधक है अतः महाव्रत और अणुव्रत भी बन्धके साधक हैं और वीतराग भावरूप जो चारित्र है सो मोक्षका साधक है। इससे महाव्रतादिरूप प्रास्रव भावोको चारित्रपना संभव नही । “सर्व कषाय रहित जो उदासीन भाव है उसोका नाम चारित्र