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: मोक्षशास्त्र है । जो चारित्र मोहके उदयमें युक्त होनेसे महामंद प्रशस्त राग होता है वह चारित्रका मल है उसे छुटता न जानकर उनका त्याग नहीं करता, सावध योगका ही त्याग करता है। जैसे कोई पुरुप कंदमूलादि अधिक दोषवाली हरित्कायका त्याग करता है तथा दूसरे हरित्कायका आहार करता है, किन्तु उसे धर्म नहीं मानता, उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि मुनि श्रावक हिंसादि तीन कषायरूप भावोंका त्याग करता है तथा कोई मदकषायरूप महाव्रत-अणुव्रतादि पालता है, परन्तु उसे मोक्षमार्ग नही मानता।"
(मो० मा० प्र० पृ० ३३७ ) ३. प्रश्न-यदि यह बात है तो महाव्रत और देशव्रतको चारित्रके भेदोंमें किसलिये कहा है ?
उत्तर-वहाँ उस महानतादिकको व्यवहार चारित्र कहा गया है और व्यवहार नाम उपचारका है । निश्चयसे तो जो निष्कषाय भाव है वही यथार्थ चारित्र है । सम्यग्दृष्टिका भाव मिश्ररूप है अर्थात् कुछ वीतरागरूप हुआ है और कुछ सराग है, अतः जहाँ अशमें वीतराग चारित्र प्रगट हुआ है वहाँ जिस अंशमें सरागता है वह महाव्रतादिरूप होता है, ऐसा सम्बन्ध जानकर उस महाव्रतादिकमे चारित्रका उपचार किया है, किन्तु वह स्वयं यथार्थ चारित्र नही, परन्तु शुभभाव है-आस्रवभाव है अत: बन्धका कारण है इसीलिये शुभभावमे धर्म माननेका अभिप्राय आस्रवतत्त्वको सवरतत्त्व माननेरूप है इसीलिये यह मान्यता मिथ्या है।
( मो० मा० प्र० पृ० ३३४-३३७ ) चारित्रका विषय इस शास्त्रके ६ वें अध्यायके १८ वें सूत्रमें लिया है, वहाँ इस सम्बन्धी टीका लिखी है, वह यहाँ भी लागू होती है।
४-व्रत दो प्रकारके हैं-निश्चय और व्यवहार । राग-द्वेषादि विकल्पसे रहित होना सो निश्चयव्रत है (देखो द्रव्यसंग्रह गाथा ३५ टीका) सम्यग्दृष्टि जीवके स्थिरताकी वृद्धिरूप जो निर्विकल्पदशा है सो निश्चयव्रत है, उसमें जितने अंशमे वीतरागता है उतने अंशमे यथार्थ चारित्र है, और सम्यग्दर्शन-ज्ञान होनेके बाद परद्रव्यके आलम्बन छोड़नेरूप जो शुभभाव है'