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अध्याय ७ सूत्र १
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सो अरणुव्रत- महाव्रत है, उसे व्यवहारव्रत कहते हैं । इस सूत्र में व्यवहारव्रतका लक्षण दिया है; इसमें अशुभभाव दूर होता है । किंतु शुभभाव रहता है, वह पुण्यास्रवका कारण है ।
५- श्री परमात्मप्रकाश अध्याय २, गाथा ५२ की टीकामें व्रत पुण्यबन्धका कारण है और व्रत पापबन्धका कारण है यह बताकर इस सूत्र का अर्थ निम्नप्रकार किया है—
"इसका अर्थ है कि - प्राणियोंको पीड़ा देना, झूठा वचन बोलना, परधन हरण करना, कुशीलका सेवन और परिग्रह इनसे विरक्त होना सो व्रत है; ये अहिंसादि व्रत प्रसिद्ध हैं, यह व्यवहारनयसे एकदेशत्रत हैं ऐसा कहा है ।
जीवघातमें निवृत्ति - जीवदया में प्रवृत्ति, असत्य वचनमें निवृत्ति और सत्य वचनमे प्रवृत्ति, प्रदत्तादान (चोरी) से निवृत्ति - अचौर्य में प्रवृत्ति इत्यादि रूपसे वह एकदेशव्रत है ।" ( परमात्मप्रकाश पृष्ठ १६१-१९२ ). यहाँ अणुव्रत और महाव्रत दोनोंको एकदेशव्रत कहा है ।
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उसके बाद वही निश्चयव्रतका स्वरूप निम्नप्रकार कहा है ( निश्चयव्रत अर्थात् स्वरूपस्थिरता अथवा सम्यक्चारित्र ) -
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"और रागद्वेषरूप सकल्प विकल्पोंकी तरंगोंसे रहित तीन गुप्तियों से गुप्त समाधिमें शुभाशुभके त्यागसे परिपूर्ण व्रत होता है । "
( परमात्मप्रकाश पृष्ठ १६२ )
सम्यग्दृष्टिके जो शुभाशुभका त्याग और शुद्धका ग्रहरण है सो निश्रचयव्रत है और उनके अशुभका त्याग और शुभका जो ग्रहण है सो व्यवहारव्रत है - ऐसा समझना । मिथ्यादृष्टिके निश्चय या व्यवहार दोनोंमें से किसी भी तरहके व्रत नही होते । तत्त्वज्ञानके बिना महाव्रतादिकका आचरण मिथ्याचारित्र ही है । सम्यग्दर्शनरूपी भूमिके बिना व्रतरूपी वृक्ष ही नही होता ।
१- व्रतादि शुभोपयोग वास्तवमे बंधका कारण है पंचाध्यायी भा० २ गा० ७५६ से ६२ में कहा है कि - 'यद्यपि रूढिसे शुभोपयोग