________________
५४६
मोक्षशास्त्र
चाहते हैं । इस तरह धर्मकी अपेक्षासे पुण्य पापका एकत्व बतलाया है । पुनश्च - श्री प्रवचनसार गाथा ७७ में भी कहा है कि-पुण्य पापमे विशेष नहीं ( अर्थात् समानता है ) जो ऐसा नही मानता वह मोहसे प्राच्छन्न है और घोर अपार संसार में भ्रमण करता है !
उपरोक्त कारणोंसे आचार्यदेवने इस शास्त्रमें पुण्य और पापका एकत्व स्थापन करनेके लिये उन दोनोंको ही श्रास्रवमे समावेश करके उसे लगातार छट्ट और सातवें इन दो अध्यायोंमें कहा है; उसमे छट्टा अध्याय पूर्ण होनेके बाद इस सातवें अध्यायमें आस्रव अधिकार चालू रखा है और उसमें शुभास्रवका वर्णन किया है ।
इस अध्याय में बतलाया है कि सम्यग्दृष्टि जीवके होनेवाले व्रत, दया, दान, करुणा, मैत्री इत्यादि भाव भी शुभ आस्रव हैं और इसीलिये वे बन्धके कारण है; तो फिर मिथ्यादृष्टि जीवके (-जिसके यथार्थं व्रत हो ही नही सकते ) उसके शुभभाव धर्म, संवर, निर्जरा या उसका कारण किस तरह हो सकता है ? कभी हो ही नही सकता ।
प्रश्न- — शाखमें कई जगह कहा जाता है कि शुभभाव परम्परासे धर्मका कारण है, इसका क्या अर्थ है ?
उत्तर - सम्यग्दृष्टि जीव जब अपने चारित्र स्वभावमें स्थिर नहीं रह सकते तब भी रागद्वेष तोड़नेका पुरुषार्थ करते हैं, किन्तु पुरुषार्थ कमजोर होनेसे अशुभभाव दूर होता है और शुभभाव रह जाता है । वे उस शुभभावको धर्म या धर्मका कारण नही मानते, किन्तु उसे आस्रव जानकर दूर करना चाहते हैं । इसीलिये जब वह शुभभाव दूर हो जाय तब जो शुभभाव दूर हुआ उसे शुद्धभाव ( - धर्म ) का परम्परासे कारण कहा जाता है । साक्षात् रूपसे वह भाव शुभास्रव होनेसे बन्धका कारण है और
जो बन्धका कारण होता है वह संवरका कारण कभी नही हो सकता । परम्परा अनर्थका कारण कहा है अज्ञानी तो शुभभावको धर्म या धर्मका कारण मानता है और उसे वह भला जानता है; उसे थोड़े समयमे दूर करके स्वयं अशुभ रूपसे परिणमेगा । इस
अज्ञानीके शुभभावको