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मोक्षशास्त्र अध्याय सातवाँ
भूमिका
प्राचार्य भगवानने इस शास्त्रका प्रारम्भ करते हुये पहले ही सूत्रमें यह कहा है कि 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही मोक्षमार्ग है। उसमें गभितरूपसे यह भी आगया कि इससे विरुद्ध भाव अर्थात् शुभाशुभ भाव मोक्षमार्ग नही है, किन्तु संसारमार्ग है । इसप्रकार इस सूत्र में जो विषय गभित रखा था वह विषय आचार्यदेवने इन छ?-सातवें अध्यायोंमें स्पष्ट किया है । छ8 अध्यायमें कहा है कि शुभाशुभ दोनों भाव आसूव है और इस विषयको अधिक स्पष्ट करनेके लिये इस सातवे अध्यायमे मुख्यरूपसे शुभासूवका अलग वर्णन किया है।
पहले अध्यायके चौथे सूत्र में जो सात तत्त्व कहे हैं उनमें से जगतके जीव आसव तत्त्वकी अजानकारीके कारण ऐसा मानते हैं कि 'पुण्यसे धर्म होता है। कितने ही लोग शुभयोगको संवर मानते हैं तथा कितने ही ऐसा मानते है कि अणुव्रत महाव्रत-मैत्रो इत्यादि भावना, तथा करुणाबुद्धि इत्यादिसे धर्म होता है अथवा वह धर्मका ( संवरका ) कारण होता है किन्तु यह मान्यता अज्ञानसे भरी हुई है । ये अज्ञान दूर करनेके लिये खास रूपसे यह एक अध्याय अलग बनाया है और उसमे इस विषयको स्पष्ट किया है।
धर्मकी अपेक्षासे पुण्य और पापका एकत्व गिना जाता है। श्री समयसारमे यह सिद्धान्त १४५ से लेकर १६३ वी गाथा तकमें समझाया है । उसमे पहले ही १४५ वी गाथामें कहा है कि लोग ऐसा मानते हैं कि अशुभकर्म कुशोल है और शुभकर्म सुशील है, परन्तु जो संसार में प्रवेश कराये वह सुशील कैसे होगा ? नही हो सकता। इसके बाद १५४ वीं गाथामे कहा है कि जो जीव परमार्थसे बाह्य हैं वे मोक्षके कारणको नहीं जानते हुये ( यद्यपि पुण्य ससारका कारण है तथापि ) अज्ञानसे पुण्यको