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मोक्षशास्त्र होता)। इस पर से यह सिद्ध हुआ कि सम्यग्दर्शन प्रगट होनेके बाद जितने जितने अंशमें वीतरागता होती है उतने २ अंशमें आस्रव और वन्ध नहीं होते तथा जितने अंशमें राग-द्वेष होता है उतने अंगमें प्रास्रव और बन्ध होता है। अतः ज्ञानीके तो अमुक अंशमें आस्रव-बन्धका निरन्तर प्रभाव रहता है । मिथ्यादृष्टिके उस शुभाशुभ रागका स्वामित्व है अत: उसके किसी भी अंश में राग-द्वेषका अभाव नहीं होता और इसीलिये उसके प्रास्रव-बन्ध दूर नही होते । सम्यग्दर्शनकी भूमिकामें आगे बढ़ने पर जीवके किस तरहके शुभभाव पाते हैं इसका वर्णन अव सातवें अध्यायमें करके आस्रवका वर्णन पूर्ण करेंगे उसके बाद पाठवें अध्यायमै वन्य तत्त्वका और नवमे अध्यायमें संवर तथा निर्जरा तत्त्वका स्वरूप कहा जायगा। धर्मका प्रारम्भ निश्चय सम्यग्दर्शन से ही होता है । सम्यग्दर्शन होने पर संवर होता है, संवरपूर्वक निर्जरा होती है और निर्जरा होने पर मोक्ष होता है, इसीलिये मोक्ष तत्त्वका स्वरूप अंतिम अध्यायमें बतलाया गया है।
और इस अध्यायमे यह भी बताया है कि जीवके विकारी भावों का पर द्रव्यके साथ कैसा निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है।
इस तरह श्री उमास्वामी विरचित मोक्षशास्त्र की गुजराती टीका के हिन्दी अनुवाद में छट्ठा
अध्याय समाप्त हुआ