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श्रध्याय ६ उपसंहार
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होता, इसलिये जीवोंको सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेका यथार्थ उपाय प्रथम करना चाहिये । सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञानके बिना किसी भो जीवके श्रासूव दूर नहीं होता और न धर्म होता है ।
(५) मिथ्यादर्शन संसारका मूल कारण है और आत्माके यथार्थ स्वरूपका जो अवर्णवाद है सो मिथ्यात्वके आस्रवका कारण है इसलिये अपने स्वरूपका तथा श्रात्माको शुद्ध पर्यायोंका अवर्णवाद न करना अर्थात् जैसा स्वरूप है वैसा यथार्थ समझकर प्रतीति करना (देखो सूत्र १३ तथा उसकी टीका )
(६) इस अध्यायमें बताया है कि सम्यग्दृष्टि जीवोंके समिति, अनुकंपा, व्रत, सरागसंयम, भक्ति, तप, त्याग, वैयावृत्त्य, प्रभावना, आवश्यक क्रिया इत्यादि जो शुभभाव हैं वे सब आस्रव है बंधके ही कारण हैं; मिथ्यादृष्टिके तो वास्तवमें ऐसे शुभभाव होते नहीं, उसके व्रत-तपके शुभभावको 'बालव्रत' और 'बालतप' कहा जाता है ।
(७) मृदुता, परकी प्रशंसा, श्रात्मनिन्दा, नम्रता, अनुत्सेकता ये शुभराग होनेसे बन्धके कारण हैं; तथा राग कषायका अंश है अतः इससे घाति तथा श्रघाति दोनों प्रकारके कर्म बंधते हैं तथा यह शुभभाव है अतः अघाति कर्मो में शुभप्रायु शुभगोत्र, सातावेदनीय तथा शुभनामकर्म बँधते हैं; और इससे विपरीत प्रशुभभावोंके द्वारा अशुभ श्रघातिकर्म भी बँधते हैं । इस तरह शुभ और अशुभ दोनों भाव बन्धके ही कारण हैं अर्थात् यह सिद्धान्त निश्चित है कि शुभ या अशुभ भाव करते करते उससे कभी शुद्धता प्रगट ही नही होती । व्यवहार करते करते सच्चा धर्म हो जायेंगे ऐसी धारणा गलत ही है ।
(८) सम्यग्दर्शन आत्माका पवित्र भाव है, यह स्वयं बंधका कारण नहीं; किंतु यहाँ यह बताया है कि जब सम्यग्दर्शनकी भूमिकामे शुभराग हो तब उस रागके निमित्तसे किस तरहके कर्मका आस्रव होता है । वीतरागता प्रगट होने पर मात्र ईर्यापथ आस्रव होता है । यह मास्रव एक ही समयका होता है (अर्थात् इसमे लम्बी स्थिति नही होती तथा अनुभाग भी नहीं