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अध्याय ६ सूत्र ३
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वीतराग होकर दृष्टा ज्ञाता रूप होवे वहाँ ही निबंधता है इसलिये वह उपादेय है ।
जहाँ तक ऐसी दशा न हो वहाँतक शुभरागरूप प्रवर्ते परन्तु श्रद्धान तो ऐसा रखना चाहिये कि यह भी बंधका कारण है- हेय है । यदि श्रद्धानमें उसे मोक्षका मार्ग जाने तो वह मिथ्यादृष्टि ही है ।
( मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ३३१-३३२ ) ३ - शुभयोग तथा अशुभयोगके अर्थ
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शुभयोग- - पंच परमेष्ठीको भक्ति, प्राणियोंके प्रति उपकारभाव, रक्षाभाव, सत्य बोलनेका भाव, परधन हरण न करनेका भाव, - इत्यादि शुभ परिणामसे निर्मित योगको शुभयोग कहते हैं ।
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अशुभयोग - जीवोकी हिंसा करना, असत्य बोलना, परधन • हरण करना, ईर्ष्या करना, -- -इत्यादि भावोंरूप अशुभ परिणामसे बने हुये योगको अशुभयोग कहते है ।
४ - आस्रवमें शुभ और अशुभ भेद क्यों ?
प्रश्न:- - आत्माके पराधीन करने मे पुण्य और पाप दोनों समान कारण हैं- सोनेकी सकिल और लोहेकी सकिलकी तरह पुण्य और पाप दोनों आत्माकी स्वतंत्रताका अभाव करनेमें समान हैं, तो फिर उसमें शुभ और अशुभ ऐसे दो भेद क्यों कहे हैं ?
उत्तरः—— उनके कारणसे मिलनेवाली इष्ट- श्रनिष्ट गति, जाति इत्यादि की रचना के भेदका ज्ञान कराने के लिये उसमें भेद कहे हैं - अर्थात् संसार को अपेक्षा से भेद है, धर्म की अपेक्षा से भेद नही, अर्थात् दोनों प्रकारके भाव 'श्रधर्म' हैं । प्रवचनसार गाथा ७७ मे कहा है कि- इसप्रकार पुण्य और पापमें भेद ( - प्रतर) नही है, ऐसा जो जीव नही मानता है वह मोहाच्छादित होता हुआ घोर अपार संसार मे परिभ्रभरण करता है ।
५-- शुभ तथा अशुभ दोनों भावोंसे सात या आठ कर्म बँधते हैं तथापि यहाँ ऐसा क्यों नहीं कहा ?