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मोक्षशास्त्र
अर्थ-[ शुभः ] शुभयोग [ पुण्यस्य ] पुण्यकर्मके आसव, कारण है और [अशुभः] अशुभ योग [पापस्य] पापकर्मके आस्रवमै कारण है।
टीका १-योगमें शुभ या अशुभ ऐसा भेद नहीं; किन्तु आचरणरूप उपयोगमें (-चारित्र गुणकी पर्यायमें ) शुभोपयोग और अशुभोपयोग ऐसा भेद होता है। इसीलिये शुभोपयोगके साथके योगको उपचारसे शुभयोग कहते हैं और अशुभोपयोगके साथके योगको उपचारसे अशुभयोग कहा जाता है।
२-पुण्यास्रव और पापासबके संबंधमें होनेवाली विपरीतता प्रश्न-मिध्यादृष्टि जीवकी आस्रव संबंधी क्या विपरीतता है ?
उत्तर-आस्रव तत्त्वमें जो हिंसादिक पापास्रव है उसे तो हेय जानता है किंतु जो अहिंसादिकरूप पुण्यास्रव है उसे उपादेय मानता है। भला मानता है, अब ये दोनों आस्रव होने से कर्म बन्धके कारण हैं, उनमें उपादेयत्व मानना ही मिथ्यादर्शन है । सो ही बात समयसार गा० २५४ से ५६ में कही है सर्व जीवों के जीवन-मरण, सुख-दुःख, अपने अपने कर्मोदयके निमित्तसे होता है तथापि जहाँ ऐसा मानना कि अन्य जीव अन्य जीवके कार्योका कर्ता होता है, यही मिथ्याध्यवसाय बंध का कारण है। अन्य जीवके जिलाने या सुखी करने का जो अध्यवसाय हो सो तो पुण्य बंधके कारण हैं और जो मारने या दुःखी करने का अध्यवसाय होता है वह पाप बन्धके कारण हैं । यह सब मिथ्या-अध्यवसाय है वह त्याज्य है। इसलिये हिंसादिक की तरह अहिंसादिकको भी बन्धके कारणरूप जानकर हेय समझना । हिंसामे जीवके मारने की बुद्धि हो किंतु उसकी आयु पूर्ण हुये विना वह नही मरता और अपनी द्वेप परिणतिसे स्वयं ही पाप बन्ध करता है, तथा अहिसामे परकी रक्षा करने की बुद्धि हो किन्तु उसकी मायुके अवशेष न होने से वह नही जीता, मात्र अपनी शुभराग परिणति से स्वयं ही पुण्य बांधता है । इस तरह ये दोनों हेय हैं । किन्तु जहाँ जीव