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श्रध्याय ७ सूत्र १ -५५५ शकति विविध बन्ध करनी ॥ ज्ञानधारा मोक्षरूप मोक्षकी करनहार, दोषकी हरनहार भी समुद्र तरनी ॥ १४ ॥
७—श्री अमृतचन्द्राचार्यकृत पु० सि० उपाय गाथा २१२ से १४ में सम्यग्दृष्टिके संबंधमे कहा है कि जिन अशोंसे यह आत्मा अपने स्वभावरूप परिणमता है वे अंश सर्वथा बन्धके हेतु नही हैं; किन्तु जिन अंशोंसे यह रागादिक विभावरूप परिणमन करता है वे ही अंश बन्धके हेतु है । श्री रायचन्द्र जैन शास्त्रमालासे प्रकाशित पु० सि० मे गा० १११ का अर्थ भाषा टीकाकारने प्रसंगत कर दिया है जो अब निम्न लेखानुसार दिखाते है । [ - अनगार धर्मामृत में भी फुटनोटमें गलत अर्थ है ]
असमग्रं भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्म बन्धोयः ।
स विपक्ष कृतोऽवस्यं मोक्षोपायो न बन्धनोपायः ॥ २११ ॥
अन्वयार्थ --- असम्पूर्ण रत्नत्रयको भावन कर्मका बन्ध है स्रो बन्ध विपक्षकृत या बन्ध मोक्षका उपाय है, बन्धका उपाय नही । अब देखो श्री टोडरमलजीकृत टीकावाला पु० सि० प्रचारक कार्यालय कलकत्ता पृ० ११५ गा० १११ ।
करनेवाले पुरुषके जो शुभ रागकृत होनेसे अवश्य ही सुसंगत - सच्चा अर्थके लिये ग्रन्थ, प्रकाशक जिनवारणी
श्रन्वयार्थ——असमग्रं रत्नत्रय भावयतः यः कर्मबन्धः अस्ति सः विपक्षकृत रत्नत्रय तु मोक्षोपाय अस्ति, न बन्धनोपायः ।
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अर्थ — एकदेशरूप रत्नत्रयको पानेवाले पुरुषके जो कर्मबन्ध होता है वह रत्नत्रयसे नही होता । किन्तु रत्नत्रयके विपक्षी जो रागद्वेष है उनसे होता है, वह रत्नत्रय तो वास्तवमे मोक्षका उपाय है बन्धका उपाय नही होता ।
भावार्थ — सम्यग्दृष्टि जीव जो एकदेश रत्नत्रयको धारण करता है, उनमें जो कर्म बन्ध होता है वह रत्नत्रयसे नही होता किन्तु उसकी जो शुभ कषाये है उन्ही से होता है । इससे सिद्ध हुआ कि कर्मवन्ध करनेवाली शुभ कषाये हैं किन्तु रत्नत्रय नही है ।