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: मोक्षशाख ५-श्री राजमलजीने 'वृत्तं कर्म स्वभावेन ज्ञानस्य भवनं नहि' पुण्य पाप अ. की इस कलशकी टीकामें लिखा है कि 'जितनी शुभ या अशुभ क्रियारूप आचरण है-चारित्र है उससे स्वभावरूप चारित्र-ज्ञानका (शुद्ध चैतन्य वस्तुका।) शुद्ध परिणमन न होइ इसौ निहचो छ (-ऐसा निश्चय है। ) भावार्थ-जितनी शुभाशुभ क्रिया-आचरण है अथवा बाह्य वक्तव्य या सूक्ष्म अन्तरंगरूप चितवन अभिलाष, स्मरण इत्यादि समस्त अशुद्ध परिणमन है वह शुद्ध परिणमन नहीं है इससे वह बन्धका कारण है-मोक्षका कारण नहीं है । जैसे-कम्बलका नाहर-( कपडे पर चित्रित शिकारी पशु ) कहनेका नाहर है वैसे-शुभक्रिया आचरणरूप चारित्र कथनमात्र चारित्र है परन्तु चारित्र नहीं है निःसंदेहपने ऐसा जानो।
( देखो रा० कलश टीका हिन्दी पृ० १०८) ६-राजमल्लजीकृत स० सार कलश टीका पृ० ११३ में सम्यग्दृष्टिके भी शुभभावकी क्रियाको-बन्धक कहा है-'बन्धायसमुल्लसति' कहते जितनी क्रिया है उतनी ज्ञानावरणादि कर्म बन्ध करती है, संवर-निर्जरा अंशमात्र भी नही करती; 'तत् एकं ज्ञानं मोक्षाय स्थितं' परन्तु वह एक शुद्ध चैतन्य प्रकाशज्ञानावरणादि कर्मक्षयका निमित्त है। भावार्थ ऐसा है जो एक जीवमे शुद्धत्व, अशुद्धत्व एक ही समय ( एक ही साथमें ) होते हैं परन्तु जितना अंश शुद्धत्व है, उतना अंश कर्म क्षपन है और जितने अंश अशुद्धत्व है, उतने अंश कर्मबन्ध होते हैं, एक ही समय दोनों कार्य होते हैं, ऐसे ही है उनमें संदेह करना नही। (कलश टीका पृष्ठ ११३ )
कविवर बनारसीदासजीने कहा है कि xxxपुण्यपॉपकी दोउ क्रिया मोक्षपंथकी कतरणी; बन्धकी करैया दोउ, दुहूमे न भली कोउ, बाधक विचारमें निषिद्ध कीनी कुरनी ॥१२॥
जोलों अष्टकर्मको विनाश नांहि सरवथा, तोलों अन्तरातमामें धारा दोई वरनी ॥ एक ज्ञानधारा एक शुभाशुभ कर्म धारा, दुहूकी प्रकृति न्यारी न्यारी न्यारी धरनी ॥ इतनो विशेष ज्यूं करमधारा बन्धरूप, पराधीन