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अध्याय २ सूत्र १०
२४६ १२-संसारके भेद करने पर भावपरिभ्रमण उपादान अर्थात् निश्चय संसार है और द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भव परिभ्रमण निमित्तमात्र है अर्थात् व्यवहार संसार है क्योंकि वह परवस्तु है; निश्चयका अर्थ है वास्तविक और व्यवहारका अर्थ है कथनरूप निमित्तमात्र । सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रके प्रगट होने पर भाव संसार दूर हो जाता है और तत्पश्चात् अन्य चार अघाति कर्मरूप निमित्तोंका स्वयं अभाव हो जाता है।
१३-मोक्षका उपदेश संसारीके लिये होता है। यदि संसार न हो तो मोक्ष, मोक्षमार्ग, या उसका उपदेश ही नहीं होता, इसलिये इस सूत्र में पहिले संसारी जीव और फिर मुक्त जीवका क्रम लिया गया है।
१४-असंख्यात और अनंतसंख्याको समझनेके लिये गणित शास्त्र उपयोगी है । उसमे १०/३ अर्थात् दशमें तीनका भाग देने पर-३.३ ३ ३... इसप्रकार तीनके अंक चलते ही है किन्तु उसका अंत नहीं आता। यह 'अनंत' का दृष्टांत है। और असंख्यातकी संख्या समझनेके लिये एक गोलाकारकी परिधि और ब्यासका प्रमाण २२/७ होता है [ब्यास करनेपर परिधि २२/७ गुणी होती है] उसका हिसाब शतांश ( Decimal ) में करने पर जो संख्या आती है वह असंख्यात है। गरिणत शास्त्रमें इस संख्याको Irrational' कहते हैं।
१५. व्यवहारराशिके जीवोंको यह पांच परिवर्तन लागू होते हैं। प्रत्येक जीवने ऐसे अनंत परिवर्तन किये है। और जो जीव मिथ्यादृष्टित्व बनाये रखेंगे उनके अभी भी वे परिवर्तन चलते रहेगे। नित्य-निगोदके जीव अनादि निगोदमेंसे निकले ही नही है, उनमें इन पांच परिवर्तनोकी शक्ति विद्यमान है इसलिये उनके भी उपचारसे यह पांच परिवर्तन लागू होते है। व्यवहार राशिके जो जीव अभीतक सभी गतियों में नही गये, उन्हे भी उप
(२४८ वे पेज की टिप्पणी ) * योगस्थानोमें भी अविभागप्रतिच्छेद होते हैं, उनमें असंख्यातभाग वृद्धि, सख्यातभाग वृद्धि, सख्यातगुण वृद्धि भोर असंख्यातगुण वृद्धि इसप्रकार चार स्थानरूप ही होते हैं।
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