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अध्याय २ उपसंहार
२९५ किया जाता है। किन्तु निमित्तको किसी भी प्रकारसे मुख्यरूपसे या गौणरूपसे कार्यसाधक मानना गंभीर भूल है। शास्त्रीय परिभाषामें उसे मिथ्यात्व और अज्ञान कहा जाता है ।
७-निमित्त जनक और नैमित्तिक-जन्य है, इसप्रकार जीव अज्ञान दशामें मानता है, इसलिये अज्ञानियोंकी कैसी मान्यता होती है यह बताने के लिये व्यवहारसे निमित्तको जनक और नैमित्तिकको जन्य कहा जाता है किन्तु सम्यग्ज्ञानी जीव ऐसा नही मानते । उनका वह ज्ञान सच्चा है यह उपरोक्त पांचवां पैरा बतलाते हैं, क्योंकि उसमे बताये गये अनंत निमित्त या उनमेका कोई अंश भी सिद्ध दशाका जनक नही हुआ। और वे निमित्त या उनमेंसे किसीके अनंतवे अंशसे भी नैमित्तिक सिद्ध दशा जन्य नही हुई।
८-संसारी जीव भिन्न २ गतिके क्षेत्रोमें जाते हैं वे भी अपनी क्रियावतीशक्तिके उस उस समयके परिणमनके कारणसे जाते है। उसमें भी उपरोक्त पैरा १ से ५ मे बताये गये अनुसार निमित्त होते है। किन्तु क्षेत्रान्तरमें धर्मास्तिकायके प्रदेशोकी उस समयकी पर्यायके अतिरिक्त दूसरा कोई द्रव्य, गुण या पर्याय निमित्त संज्ञाको प्राप्त नहीं होता। उस समय अनेक कर्मोका उदय होने पर भी एक विहायोगति नामकर्मका उदय ही 'निमित्त' संज्ञा पाता है । गत्यानुपूर्वी कर्मके उदयको जीवके प्रदेशोके उस समयके प्राकारके साथ क्षेत्रान्तरके समय निमित्तपना है और जब जीव जिस क्षेत्रमे स्थिर हो जाता है उस समय अधर्मास्तिकायके उस क्षेत्रके प्रदेशोंकी उस समयकी पर्याय 'निमित्त' संज्ञाको प्राप्त होती है।
सूत्र २५ बतलाता है कि क्रियावती शक्तिके उस समयके परिणमनके समय योग गुणकी जो पर्याय पाई जाती है उसमे कार्मण शरीर निमित्त है, क्योकि कार्मण शरीरका उदय उसके अनुकूल है । कार्मण शरीर
और तैजस शरीर अपनी क्रियावतीशक्तिके उस समयके परिणमनके कारण जाता है, उसमे धर्मास्तिकाय निमित्त है।