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________________ अध्याय २ सूत्र ७ २३३ २. विशेष स्पष्टीकरण (१) पाँच भावोंमें औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और औदयिक यह चार भाव पर्यायरूप ( वर्तमानमें विद्यमान दशारूप ) हैं और पांचवां शुद्ध पारिणामिकभाव है वह त्रिकाल एकरूप ध्रुव है इसलिये वह द्रव्यरूप है । इसप्रकार आत्मपदार्थ द्रव्य और पर्याय सहित (जिस समय जो पर्याय हो उस सहित) है। (२) जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व-इन तीन पारिणामिक भावोंमे जो शुद्ध जीवत्वभाव है वह शुद्ध द्रव्याथिक नयके आश्रित होनेसे नित्य निरावरण शुद्ध पारिणामिकभाव है और वह बन्ध-मोक्ष पर्याय (-परिणति) से रहित है। (३) जो दश प्राणरूप जीवत्व तथा भव्यत्व, अभव्यत्व है उसे वर्तमानमे होनेवाले अवस्थाके आश्रित होनेसे (पर्यायार्थिक नयाश्रित होनेसे) अशुद्ध पारिणामिकभाव समझना चाहिए। जैसे सर्व संसारी जीव शुद्धनयसे शुद्ध हैं उसीप्रकार यदि अवस्था दृष्टिसे भी शुद्ध है ऐसा माना जाय तो दश प्राणरूप जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्वका अभाव ही हो जाय । (४) भव्यत्व और अभव्यत्वमेंसे भव्यत्वनामक अशुद्ध पारिणामिक भाव भव्यजीवोंके होता है । यद्यपि वह भाव द्रव्यकर्मकी अपेक्षा नही रखता तथापि जीवके सम्यक्त्वादि गुरण जब मलिनतामें रुके होते हैं तब उसमे जड़ कर्म जो निमित्त है उसे भव्यत्वकी अशुद्धतामे उपचारसे निमित्त कहा जाता है। वह जीव जब अपनी पात्रताके द्वारा ज्ञानीकी देशनाको सुनकर सम्यक्दर्शन प्रगट करता है और अपने चारित्रमें स्थिर होता है तब उसे भव्यत्व शक्ति प्रगट (व्यक्त ) होती है। वह जीव सहज शुद्ध पारिणामिकभाव जिसका लक्षण है ऐसे अपने परमात्म द्रव्यमय सम्यक् श्रद्धा, ज्ञान और अनुचरणरूप अवस्था ( पर्याय ) को प्रगट करता है। (देखो समयसार हिन्दी जयसेनाचार्यकृत संस्कृत टीका पृष्ठ ४२३) (५) पर्यायाथिक नयसे कहा जानेवाला लाभ-भव्यत्वभावका अभाव मोक्षदशामें होता है अर्थात् जीवमे जब सम्यग्दर्शनादि गुणकी पूर्णता
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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