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________________ ५७२ मोक्षशास और वह विशुद्ध संयमके धारक मुनिराजके ही होता है। वास्तव में ये पांचों प्रकारके शरीर जड़ हैं-अचेतन हैं अर्थात् यथार्थमें ये शरीर जीवके नहीं । कार्माण शरीर तो इंद्रियसे दिखाई नहीं देता तथापि ऐसा व्यवहार कथन सुनकर कि 'संसारी जीवोके कार्माण शरीर होता है इसका यथार्थ आशय समझनेके बदले उसे निश्चय कथन मानकर अज्ञानी ऐसा मान लेते हैं कि वास्तवमें जीवका ही शरीर होता है। शरीर अनन्त रजकरणोंका पिण्ड है और प्रत्येक रजकरण स्वतंत्र द्रव्य है। यह हलन चलनादिरूप अपनी अवस्था अपने कारणसे स्वतंत्ररूपसे धारण करता है। प्रत्येक परमाणुद्रव्य अपनी नवीन पर्याय प्रतिसमय उत्पन्न करता है और पुरानी पर्यायका अभाव करता है। इसतरह पर्यायके उत्पाद व्ययरूप कार्य करते हुए ये प्रत्येक परमाणु ध्रुवरूपसे हमेशा बने रहते हैं । अतएव जगत्के समस्त द्रव्य स्थिर रहकर बदलनेवाले हैं। ऐसा होने पर भी अज्ञानी जीव ऐसा भ्रम सेवन करता है कि जीव शरीरके अनन्त परमाणुद्रव्योंकी पर्याय कर सकता है और जगत्के अज्ञानियोंकी ओरसे जीवको अपनी इस विपरीत मान्यताकी बलवानपनेसे-विशेषरूपसे पुष्टि मिला करती है। शरीरके साथ जो एकत्वबुद्धि है सो इस अज्ञानका कारण है अतः इसके फलरूपसे जीवके अपने विकारभावके अनुसार नये २ शरीरका संयोग हुआ करता है । इस भूलको दूर करनेके लिये चेतन और जड़ वस्तुके स्वभावकी स्वतंत्रता समझनेकी आवश्यकता है। सम्यग्दृष्टि जीव इस वस्तुस्वभावको सम्यग्ज्ञानसे जानता है । यहाँ इस सम्यग्ज्ञान और यथार्थ मान्यताको विशेष स्थिर-निश्चल करनेके लिये इसका बारम्बार विचार-चितवन करना कहा है। ३. संवेग सम्यग्दर्शनादि धर्ममें तथा उसके फलमें उत्साह होना और संसार का भय होना सो संवेग है । परवस्तु संसार नहीं किन्तु अपना विकारीभाव संसार है, इस विकारीभावका भय रखना अर्थात् इस विकारीभावके न होनेकी भावना रखना और वीतराग दशाकी भावना बढ़ानी चाहिये ।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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