________________
मोक्षशास्त्र इसलिये मुमुक्षु जीवोंको इसका स्वरूप समझना आवश्यक है; आचार्यदेव इस अध्यायमें इसका वर्णन थोड़ेमें करते हैं इसमें पहले संवरका स्वरूप वर्णन करते है।
संवरका लक्षण श्रास्त्रव निरोधः संवरः ॥१॥ अर्थ-[प्रास्रव निरोधः ] आस्रवका रोकना सो [ संवरः ] संवर है अर्थात् आत्मामें जिन कारणोंसे कर्मोका आस्रव होता है उन कारणोंको दूर करनेसे कर्मोका आना रुक जाता है उसे संवर कहते है।
टीका १-संवरके दो भेद हैं-भावसंवर और द्रव्यसंवर। इन दोनोंकी व्याख्या भूमिकाके तीसरे फिकरेके (७) उपभेदमें दी है।
२-संवर धर्म है; जीव जब सम्यग्दर्शन प्रगट करता है तब संवर का प्रारम्भ होता है; सम्यग्दर्शनके बिना कभी भी यथार्थ संवर नहीं होता। सम्यग्दर्शन प्रगट करनेके लिये जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंका स्वरूप यथार्थरूपसे और विपरीत अभिप्राय रहित जानना चाहिये।
३-सम्यग्दर्शन प्रगट होनेके बाद जीवके आंशिक वीतरागभाव और आंशिक सरागभाव होता है। वहाँ ऐसा समझना कि वीतरागभावके द्वारा संवर होता है और सरागभावके द्वारा बन्ध होता है।
४-बहुतसे जीव अहिंसा आदि शुभास्रवको संवर मानते हैं किन्तु यह भूल है । शुभास्रवसे तो पुण्यबन्ध होता है । जिस भाव द्वारा बन्ध हो उसी भावके द्वारा संवर नहीं होता।
५-आत्माके जितने अंशमें सम्यग्दर्शन है उतने अंशमें संवर है और बंध नहीं, किन्तु जितने अंशमें राग है उतने अंशमें बंध है; जितने अंशमे सम्यग्ज्ञान है उतने अंशमें संवर है, बंध नही किन्तु जितने अंशमें राग है उतने अंशमें बंध है तथा जितने अंशमें सम्यक्चारित्र है उतने अंशमें