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मोक्षशास्त्र लिया है वह आत्मस्वभावका निर्णय करता ही है। उसके पीछे हटनेकी बात शास्त्रमें नहीं ली गई है।
___ संसारकी रुचिको घटाकर आत्म निर्णय करनेके लक्षसे जो यहाँतक पाया है उसे श्रुतज्ञानके अवलम्बनसे निर्णय अवश्य होगा, यह हो ही नही सकता कि निर्णय न हो। सच्चे साहूकारके बहीखातेमें दिवालेकी बात ही नही हो सकती, उसीप्रकार यहाँ दीर्घ संसारीकी बात ही नहीं है यहाँ तो सच्चे जिज्ञासु जीवो ही की बात है। सभी बातोंकी हाँ में हाँ भरे और एक भी बातका अपने ज्ञानमें निर्णय न करे ऐसे 'ध्वजपुच्छ' जैसे जीवोंकी बात यहाँ नहीं है। यहाँ तो निश्चल और स्पष्ट बात है। जो अनन्तकालीन संसारका अन्त करनेके लिये पूर्ण स्वभावके लक्षसे प्रारम्भ करनेको निकले हैं ऐसे जीवों का प्रारम्भ किया हुआ कार्य फिर पीछे नहीं हटता,-ऐसे जीवों की ही यहाँ बात है, यह तो अप्रतिहत मार्ग है। 'पूर्णताके लक्षसे किया गया प्रारम्भ ही वास्तविक प्रारम्भ है'। पूर्णताके लक्षसे किया गया प्रारम्भ पीछे नही हटता, पूर्णता के लक्षसे पूर्णता अवश्य होती है।
जिस ओरकी रुचि उसी ओरकी रटन ____एककी एक बात ही पुनः पुनः ( अदल बदलकर ) कही जा रही है, किन्तु रुचिवान जीवको उकताहट नही होती। नाटकका रुचिवान मनुष्य नाटकमें 'वन्स मोर' कहकर अपनी रुचिवाली वस्तुको बारंबार देखता है । इसीप्रकार जिन भव्य जीवोंको आत्मरुचि हुई है और जो आत्मकल्याण करने को निकले है वे बारम्बार रुचिपूर्वक प्रतिसमय-खाते, पीते, चलते फिरते सोते जागते उठते बैठते बोलते चालते विचार करते हुए निरंतर श्रुत का ही अवलंबेन स्वभावके लक्षसे करते हैं, उसमें किसी काल या क्षेत्रकी मर्यादा नही करते। उन्हें श्रुतज्ञानकी रुचि और जिज्ञासा ऐसी जम गई है कि वह कभी भी नही हटती। ऐसा नही कहा है कि अमुक समय तक अवलंबन करना चाहिए और फिर छोड़ देना चाहिए, किन्तु श्रुतज्ञानके अवलंबनसे आत्माका निर्णय करनेको कहा है। जिसे सच्ची तत्त्वको रुचि हुई है वह दूसरे सब कार्योकी प्रीति को गौण ही कर देता है ।