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अध्याय १ परिशिष्ट ३
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परिपूर्ण मात्मवस्तु हो उत्कृष्ट महिमावान है, मैंने ऐसा परमस्वरूप अनन्तकानमें पहिले कभी नहीं गुना था - ऐसा होनेपर उसे स्वरूपकी रुचि जाग्रत होती है और सत्समागमका रङ्ग लग जाता है अर्थात् उसे कुदेवादि या संसारके प्रति रुचि हो हो नही सकती ।
यदि अपनी वस्तुको पहिचाने तो प्रेम जाग्रत हो और उस तरफका पुरुषार्थले । झात्मा अनादिकालसे स्वभावको भूलकर पुण्य-पापमय परभाव स्पो परदेशमे परिभ्रमरण करता है, स्वरूपसे बाहर संसार में परिभ्रमण करते करते परमपिता सर्वज्ञदेव और परम हितकारी श्री परमगुरुसे भेंट हुई और वे पूरणं हित कैसे होता है यह सुनाते हैं तथा आत्मस्वरको पहिचान कराते हैं । श्रपने स्वरूपको सुनते हुए किस धर्मीको उल्लास नही होता ? आत्मस्वभावकी बात सुनते ही जिज्ञासु जीवोको महिमा ती ही है कि ग्रहो ! अनन्तकालसे यह अपूर्वं ज्ञान नही हुआ; स्वरुपके बाहर परभावमें भ्रमित होकर अनन्तकाल तक दुखी हुआ, यदि यह अपूर्वज्ञान पहिले किया होता तो यह दुःख नही होता । इसप्रकार स्वरूपको चाह जागत हो, रस श्राने, महिमा जागे और इस महिमाको वयार्थतया रटते हुए स्वरूपका निर्णय करे । इसप्रकार जिसे धर्म करके सुखी होना हो उसे पहिले श्रुतज्ञानका अवलम्बन लेकर आत्माका निर्णय करना चाहिये |
भगवानको श्रुतज्ञानरूपी डोरीको दृढतापूर्वक पकड़ कर उसके श्रवलम्बनसे-स्वरूपमें पहुँचा जाता है । श्रुतज्ञानके अवलम्बनका अर्थ क्या है ? सच्चे श्रुतज्ञानका ही रस है, अन्य कुश्रुतज्ञानका रस नही है, संसारकी बातोंका तीव्र रस टल गया है और श्रुतज्ञानका तीव्र रस आने लगा है । इसप्रकार श्रुतज्ञानके अवलम्वनसे ज्ञान स्वभाव आत्माका निर्णय करनेके लिये जो तैयार हुआ है उसे अल्पकालमें आत्म प्रतीति होगी संसारका तीव्र लोहरस जिसके हृदयमे घुल रहा हो उसे परमशान्त स्वभावकी बात समझने की पात्रता ही जाग्रत नही होती 'यहाँ जो 'श्रुतका अवलम्बन' शब्द दिया है सो वह अवलम्बन स्वभावके लक्षसे है, पीछे न हटनेके लक्षसे है, जिसने ज्ञानस्वभाव श्रात्माका निर्णय करनेके लिए श्रुतका अवलम्बन