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अध्याय १ परिशिष्ट ३
१७३
प्रश्न
- तब क्या सत्की प्रीति होती है इसलिये खाना-पीना और व्यापार धन्धा सब छोड़ देना चाहिए ? और श्रुतज्ञानको सुनते ही रहना - चाहिए ? किन्तु उसे सुनकर भी क्या करना है ?
उत्तर -- सत्की प्रीति होती है इसलिये तत्काल खाना पीना सब छूट ही जाय ऐसा नियम नही है, किन्तु उस ओरकी रुचि तो अवश्य कम हो ही जाती है । परमेसे सुख बुद्धि उड़ जाय और सबमें एक आत्मा ही आगे रहे इसका अर्थ यह है कि निरन्तर श्रात्मा ही की तीव्राकांक्षा और चाह होती है । ऐसा नही कहा है कि मात्र श्रुतज्ञानको सुना ही करे किन्तु श्रुतज्ञानके द्वारा आत्माका निर्णय करना चाहिए ।
श्रुतावलम्बनकी घुन लगनेपर वहाँ, देव - गुरु-शास्त्र, धर्म, निश्चय, व्यवहार, इत्यादि अनेक प्रकारसे बातें श्राती हैं उन सब प्रकारोंको जानकर एक ज्ञान स्वभाव आत्माका निश्चय करना चाहिए । उसमे भगवान कैसे है उनके शास्त्र कैसे हैं और वे क्या कहते हैं; इन सबका अवलम्बन यह निर्णय कराता है कि तू ज्ञान है, आत्मा ज्ञान स्वरूपी ही है, ज्ञानके अतिरिक्त वह दूसरा कुछ नही कर सकता ।
देव - गुरु-शास्त्र कैसे होते हैं और उन्हे पहिचानकर उनका अवलम्बन करनेवाला स्वयं क्या समझा है, यह इसमे बत्ताया है । 'तू ज्ञान स्वभावी श्रात्मा है, तेरा स्वभाव जानना ही है, कुछ परका करना या पुण्य पापके भाव करना तेरा स्वभाव नही है' इसप्रकार जो बताते हों वे सच्चे देव-गुरु- शास्त्र हैं, और इसप्रकार जो समझता है वही देव-गुरु- शारुके अवलम्बनसे श्रुतज्ञानको समझा है । किन्तु जो रागसे निमित्तसे धर्म - मनवाते हो और जो यह मनवाते हों कि आत्मा शरीराश्रित क्रिया करता है जड़कर्म आत्माको हैरान करते है वे देव-गुरु-शास्त्र सच्चे नहीं हैं ।
जो शरीरादि सर्व परसे भिन्न ज्ञान स्वभाव श्रात्माका स्वरूप बतलाता हो और यह बतलाता हो कि -- पुण्य-पापका कर्तव्य आत्माका नही है वही सत् श्रुत है, वही सच्चा देव है और वही सच्चा गुरु है । और जो पुण्यसे धर्म बताये, शरीरकी क्रियाका कर्ता आत्माको बतावे और रागसे