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मोक्षशास्त्र
३ - शुद्ध जीवोंके कर्म नष्ट होनेपर प्रगट होनेवाले जो प्राठ गुण कहे है, उनमें चारित्रको न कहकर सम्यक्त्वको ही कहा है इसका क्या कारण है ? वहाँ चारित्रको क्यों छोड़ दिया है ? ४ - कही कहीं चारित्र अथवा सम्यक्त्वमेंसे एकको भी न कहकर सुख गुणका ही उल्लेख किया गया है सो ऐसा क्यों ?
उत्तर
जब जीव अपना निजस्वरूप प्रगट न करे और संसारिक दशाको बढ़ाये तब मोहनीय कर्म निमित्त है किन्तु यह मानना सर्वथा मिथ्या है कि कर्म जीवका कुछ कर सकते हैं । संसारिक दशाका अर्थ यह है कि जीवमें आकुलता हो, प्रशांति हो, क्षोभ हो । इस अशांतिके तीन भाग किये जा सकते हैं;~~१- अशांतिरूप वेदनका ज्ञान, २-उस वेदनकी ओर जीव भुके तब निमित्त कारण, और ३- प्रशांतिरूप वेदन | उस वेदनका ज्ञान ज्ञानगुणमें गर्भित हो जाता है । उस ज्ञानके कारणमें ज्ञानावरणका क्षयोपशम निमित्त है । जब जीव उस वेदनकी ओर लगता है तब वेदनीय कर्म उस कार्य में निमित्त होता है; और वेदनमें मोहनीय निमित्त है । प्रशांति, मोह, आत्मज्ञानपराङ्मुखता, तथा विषयासक्ति, यह सब मोहके हो कार्य है । कारणके नाशसे कार्य भी नष्ट हो जाता है इसलिये विषयासक्तिको घटाने से पूर्व ही आत्मज्ञान उत्पन्न करनेका उपदेश भगवानने दिया है ।
मोहके कार्यको दो प्रकारसे विभक्त कर सकते हैं:-१ दृष्टिको विमुखता और २ चारित्रको विमुखता । दोनोंमें विमुखता सामान्य है । वे दोनो सामान्यतया 'मोह' के नामसे पहिचानी जाती है, इसलिये उन दोनों को प्रभेदरूपसे एक कर्म बतलाकर उसके दो उपविभाग 'दर्शन मोह' और 'चारित्र मोह' कहे हैं । दर्शनमोह अपरिमितमोह है और चारित्रमोह परिमित । मिथ्यादर्शन संसारको जड़ है, सम्यग्दर्शनके प्रगट होते ही मिथ्यादर्शनका अभाव हो जाता है । मिथ्यादर्शनमे दर्शनमोह निमित्त है, दर्शन मोहका अभाव होनेपर उसी समय चारित्र मोहका एक उपविभाग जो कि
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