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अध्याय १ परिशिष्ट १
१४७ ४-क्षायिक निर्मानता ( दशवे गुणस्थानमें ), ५-क्षायिक निष्कपटता ( दशवें गुणस्थानमें ) और क्षायिक निर्लोभता ( बारहवें गुणस्थानमे ) होती है। बारहवे गुणस्थानमें वीर्य क्षयोपशमरूप होता है, फिर भी कषायका क्षय है।
अन्य प्रकारसे देखा जाय तो तेरहवें गुरणस्थानमें क्षायिक अनन्तवीर्य और संपूर्ण ज्ञान प्रगट होता है, तथापि योगोंका कंपन और चार प्रतिजीवी गुणोंकी शुद्ध पर्यायकी अप्रगटता (-विभाव पर्याय ) होती है। चौदहवें गुणस्थानमे कषाय और योग दोनों क्षयरूप है, फिर भी असिद्धत्व है, उस समय भी जीवकी अपने पूर्ण शुद्धतारूप उपादानकी कचाईके कारण कर्मोके साथका सम्बन्ध और संसारीपन है ।
उपरोक्त कथनसे यह सिद्ध होता है कि-भेदकी अपेक्षासे प्रत्येक गुण स्वतंत्र है, यदि ऐसा न हो तो एक गुण दूसरे गुणरूप हो जाय और उस गुरणका अपना स्वतंत्र कार्य न रहे । द्रव्यकी अपेक्षासे सभी गुण अभिन्न है यह ऊपर कहा गया है।
(७) प्रश्न-ज्ञान और दर्शन चेतना गुणके विभाग हैं, उन दोनोंके घातमे निमित्तरूपसे भिन्न २ कर्म माने गये है, किन्तु सम्यक्त्व और चारित्र दोनों भिन्न २ गुण हैं तथापि उन दोनोके घातमे निमित्तकर्म एक मोह ही माना गया है, इसका क्या कारण है ?
प्रश्न का विस्तार इस प्रश्न परसे निम्नलिखित प्रश्न उत्पन्न होते हैं१-जब कि मोहनीय कर्म सम्यक्त्व और चारित्र दोनो गुणोंके
घातमें निमित्त है तब मूल प्रकृतियोमे उसके दो भेद मानकर
नौ कर्म कहना चाहिए, किन्तु आठ ही क्यो कहे गये हैं ? २-जब कि मोहनीयकर्म दो गुणोके घातनेमे निमित्त है तव चार
घातिया कर्म चार ही गुणोके घातनेमे निमित्त क्यों वताये गये हैं ? पाँच गुणोंका घात क्यो नही माना गया ?