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अध्याय १ सूत्र ६ ३-प्रात्माके शुद्धभावसे धर्म होता है और शुभ भावसे नहीं होता,
ऐसा जानना सो सम्यक् अनेकान्त है। आत्माके शुद्ध भावसे धर्म होता है और शुभ भावसे भी होता है, ऐसा जानना सो मिथ्या अनेकान्त है। ४-निश्चय स्वरूपके आश्रयसे धर्म होता है और व्यवहारके आश्रय से नही होता, ऐसा जानना सो सम्यक् अनेकान्त है। निश्चय
स्वरूपके आश्रयसे धर्म होता है और व्यवहारके आश्रयसे भी , होता है, ऐसा समझना सो मिथ्या अनेकान्त है। ५-निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट करनेके बाद स्वावलम्बनके बलसे जितना अंश व्यवहारका (-पराश्रयका) प्रभाव होता है उतना अंश निश्चय (-शुद्ध पर्याय ) प्रगट होता है, ऐसा समझना सो सम्यक् अनेकान्त है । व्यवहारके करते २ निश्चय प्रगट हो
जाता है, ऐसा समझना सो मिथ्या अनेकान्त है। ६-आत्माको अपनी शुद्ध क्रियासे लाभ होता है, और शारीरिक __ क्रियोसे हानि-लाभ नही होता, ऐसा जानना सो सम्यक् अने'कान्त है । आमाको अपनी शुद्ध क्रियासे लाभ होता है और शारीरिक क्रियासे' भी लाभ होता है, ऐसा मानना सो मिथ्या
अनेकान्त'है ।" '. ७-एक (प्रत्येक ) वस्तुमें सदा स्वतंत्र वस्तुत्त्वको सिद्ध करनेवाली
परस्पर दो विरोधी शक्तियों [ सत्-असत्, तत्-अतद, नित्यअनित्य, एक-अनेक इत्यादि ]-को प्रकाशित करे सो सम्यक् अनेकान्त है। एक वस्तुमे दूसरी वस्तुकी शक्तिको प्रकाशित करके, एक वस्तु, दो वस्तुओंका कार्य करती है, ऐसा मानना सो मिथ्या अनेकांत है; अथवा सम्यक् अनेकान्तसे वस्तुका जो स्वरूप निश्चित है उससे विपरीत वस्तु स्वरूपकी केवल कल्पना करके, जो उसमे न हो वैसे स्वभावोंकी कल्पना करना सो मिथ्या अनेकान्त है।