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मोक्षशास्त्र
(४) अनेकान्त एकान्त
जैन शास्त्रोंमे अनेकान्त और एकान्त शब्दोंका खूब प्रयोग किया गया है, इसलिये उनका संक्षिप्त स्वरूप यहाँ दिया जा रहा है।
अनेकान्त [अनेक+अंत] अनेक धर्म । एकान्त-[एक+अंत] एक धर्म।
अनेकान्त और एकान्त दोनोंके दो-दो भेद हैं । अनेकान्तके दो भेद सम्यक्-अनेकान्त और मिथ्या-अनेकान्त तथा एकान्तके दो भेद-सम्यक्एकान्त और मिथ्या-एकान्त हैं । इनमेंसे सम्यक्-अनेकान्त प्रमाण है और मिथ्या-अनेकान्त प्रमाणाभास; तथा सम्यक्-एकान्त नय है और मिथ्याएकान्त नयाभास है।
(५) सम्यक और मिथ्या अनेकान्तका स्वरूप
प्रत्यक्ष, अनुमान तथा आगमप्रमाणसे अविरुद्ध एक वस्तुमें जो अनेक धर्म है उन्हे निरूपण करने में जो तत्पर है सो सम्यक् अनेकान्त है । प्रत्येक वस्तु निजरूपसे है और पररूपसे नही। अात्मा स्व-स्वरूपसे है, पर स्वरूपसे नही, पर उसके स्वरूपसे है और आत्माके स्वरूपसे नही, इसप्रकार जाननासो सम्यक् अनेकान्त है । और जोतत् अतत् स्वभावकी मिथ्या कल्पना की जाती है सो मिथ्या अनेकान्त है । जीव अपना कुछ कर सकता है और दूसरे जीवोंका भी कर सकता है, इसमे जीवका निजसे और परसे-दोनोसे तत्पन हुआ, इसलिये वह मिथ्या अनेकान्त है।
(६) सम्यक् और मिथ्या अनेकान्तके दृष्टान्त१-प्रात्मा निजरूपसे है और पररूपसे नही, ऐसा जानना सो सम्यक्
अनेकान्त है । प्रात्मा निजरूपसे है और पररूपसे भी है, ऐसा जानना सो मिथ्या अनेकान्त है। २-यात्मा अपना कुछ कर सकता है शरीरादि पर वस्तुगोंका कुछ
नहीं कर सकता,-ऐसा जानना सो सम्यक् अनेकान्त है। प्रात्मा अपना कर सकता है और शरीरादि परका भी कर सकता है, ऐगा जानना गो मिथ्या अनेकान्त है।