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अध्याय १ सूत्र ३३
११७ "सो चिय इक्को धम्मो, वाचय सद्दो वि तस्स धम्मस्स । तं जाणदि तं गाणं, ते तिण्णि वि णय विसेसा य ॥२६॥
अर्थ-जो वस्तुका एक धर्म, उस धर्मका वाचक शब्द और उस धर्मको जाननेवाला ज्ञान ये तीनों ही नयके विशेष है।
इनको जैसे प्रमाणस्वरूप कहते हैं वैसे ही नय भी कहते हैं।"
(पाटनी ग्रन्थमालासे प्र० कार्तिकेयानुप्रेक्षा पृष्ठ १७०) __ "सुयणाणस्स वियप्पो, सो वि ओ" श्रुतज्ञानके विकल्प (-भेद) को नय कहा है।
(का० अनुप्रेक्षा गा० २६३ ) जैन नीति अथवा नय विवक्षा:एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तु तत्त्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनी नीतिमन्थाननेत्रमिव गोपी ।।२२५॥
(पु० सि० उपाय ) अर्थ-मथानीको खीचनेवाली ग्वालिनीकी तरह जिनेन्द्र भगवान् की जो नीति अर्थात् नय विवक्षा है वह वस्तु स्वरूपको एक नय विवक्षासे खीचती हुई तथा दूसरी नय विवक्षासे ढीली करती हुई अंत अर्थात् दोनों विवक्षाओंसे जयवन्त रहे।
भावार्थ-भगवान्की वाणी स्याद्वादरूप अनेकान्तात्मक है, वस्तु का स्वरूप मुख्य तथा गौण नयकी विवक्षासे ग्रहण किया जाता है । जैसे जीव द्रव्य नित्य भी है और अनित्य भी है, द्रव्याथिकनयकी विवक्षासे नित्य है तथा पर्यायार्थिक नयकी विवक्षासे अनित्य है यही नय विवक्षा है। (जिनवाणी प्रचारक कार्यालय कलकत्तासे प्र० श्री अमृतचंद्राचार्य
कृत पुरुषार्थ सि० उ० पृष्ठ १२३) यह श्लोक सूचित करता है कि-शास्त्रमे कई स्थान पर निश्चयनय की मुख्यतासे कथन है और कहीपर व्यवहारनयकी मुख्यतासे कथन है,