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मोक्षशास्त्र पूर्वके वैरका स्मरण करा कराके परस्परमें लड़ाते हैं। और दुःखी देख राजी होते हैं।
सूत्र ३-४-५ में नारकियोंके दुःखोंका वर्णन करते हुए उनके शरीर, उनका रंग, स्पर्श इत्यादि तथा दूसरे नारकियों और देवोंके दुःखका कारण कहा है वह उपचार कथन है। वास्तवमें वे कोई परपदार्थ दुःखोंके कारण नहीं हैं तथा उनका संयोगसे दुःख नहीं होता। परपदार्थोके प्रति जीवकी एकत्वबुद्धि ही वास्तवमें दुःख है उस दुःखके समय, नरंकगतिमें निमित्तरूप बाह्यसंयोग कैसा होता है उसका ज्ञान करानेके लिए यहां तीन सूत्र कहे हैं, परंतु यह नहीं समझना चाहिये कि वे शरीरादि वास्तवमें दुःखके
नारकोंकी उत्कृष्ट आयु का प्रमाण
तेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा सत्त्वानां परा स्थितिः ॥६॥
अर्थ-उन नरकोंके नारकी जीवोंकी उत्कृष्ट प्रायुस्थिति क्रमसे पहिलेमें एक सागर, दूसरेमें तीन सागर, तीसरेमें सात सागर, चौथेमें दश सागर, पाँचवेंमें सत्रह सागर, छ8 में बावीस सागर और सातवेमें तेतीस सागर है।
टीका १. नारक गतिमें भयानक दुःख होनेपर भी नारकियों की आयु निरुपक्रम है-उनकी अकालमृत्यु नहीं होती।
२. आयु का यह काल वर्तमान मनुष्योंकी भायुकी अपेक्षा लम्बा लगता है परन्तु जीव अनादिकालसे है और मिथ्याष्टिपनके कारण यह नारकीपणा जीवने अनन्तवार भोगा है। अध्याय २ सूत्र १० की टीकामें द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावपरिभ्रमण ( परावर्तन ) का जो स्वरूप दिया गया है उसके देखनेसे मालूम होगा कि यह काल तो महासागर की एक बूंदसे भी बहुत कम है।