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अध्याय ३ सूत्र ६
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३. नारकी जीवोंको जो भयानक दुख होते हैं उसके वास्तविक कारण, भयानक शरीर, वेदना, मारपीट, तीव्र उष्णता तीव्र शीतलता इत्यादि नही है, परन्तु मिथ्यात्वके कारण उन सयोगोके प्रति अनिष्टपने की सोटी कल्पना करके जीव तीव्र आकुलता करता है उसका दुःख है । परसंयोग अनुकूल-प्रतिकूल होता ही नही, परन्तु वास्तवमे जीवके ज्ञानके क्षयोपशम उपयोगके अनुसार ज्ञेय ( - ज्ञानमे ज्ञात होने योग्य ) पदार्थ हैं, उन पदार्थोंको देखकर जव अज्ञानी जीव दुःखकी कल्पना करता है तब परद्रव्योपर यह आरोप होता है कि वे दुःखमे निमित्त हैं ।
४. शरीर चाहे जितना खराब हो, खानेको भी न मिलता हो, पीनेको पानी भी न मिलता हो, तीव्र गर्मी या ठण्ड हो, और बाह्य सयोग ( अज्ञानदृष्टिसे ) चाहे जितने प्रतिकूल हों परन्तु वे सयोग जीवको समयग्दर्शन ( धर्म ) करनेमें वाघक नही होते, क्योकि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यमे कभी वाघा नही डाल सकता, नरकगति में भी पहिलेसे सातवे नरक तक ज्ञानी पुरुषके सत्समागमसे पूर्वभवमें सुने गये श्रात्मस्वरूपके संस्कार ताजे करके नारकी जीव सम्यग्दर्शन प्रगट करते हैं। तीसरे नरकतकके नारकी जीवोको पूर्वभवका कोई सम्यग्ज्ञानी मित्र देव आत्मस्वरूप समझाता है तो उसके उपदेशको सुनकर यथार्थ निर्णय करके वे जीव सम्यग्दर्शन प्रगट करते हैं ।
५. इससे सिद्ध होता है कि - "जीवोंका शरीर अच्छा हो, खाना पीना ठीक मिलता हो और बाह्य संयोग अनुकूल हो, तो धर्म हो सकता है और उनकी प्रतिकूलता होने पर जीव धर्म नही कर सकता" यह मान्यता ठीक नही है । परको अनुकूल करनेमें प्रथम लक्ष रोकना और उसके अनुकूल होनेपर धर्मको समझना चाहिये,- - इस मान्यतामे भूल है, क्योकि धर्म पराधीन नही किन्तु स्वाधीन है और वह स्वाधीनतापूर्वक प्रगट किया जा सकता है ।
६. प्रश्न --- यदि बाह्य संयोग और कर्मोंका उदय धर्ममे बाघक नही है तो नारकी जीव चौथे गुरणस्थानसे ऊपर क्यों नही जाते ?
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