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मोक्षेशोष का तीव्र उदय है इसलिये वह धर्म नहीं करता। उस जीवको लक्ष्य स्वसन्मुख नहीं है किंतु परवस्तु पर है, इतना बतानेके लिये वह व्यवहार कथन है। परन्तु ऐसे उपचार कथनको सत्यार्थ माननेसे दोनों दोष आते हैं कि जड़ कर्म जीवको नुकसान करता है या जीव जड़कर्मका क्षय करता है। और ऐसा मानने में दो द्रव्यके एकत्वको मिथ्या श्रद्धा होती है।
३-अधिकरण दोष यदि जीव शरीरका कुछ कर सकता, उसे हला-चला सकता या दूसरे जीवका कुछ कर सकता तो वह दोनों द्रव्योंका अधिकरण ( स्वक्षेत्ररूप प्राधार ) एक होजाय और इससे 'अधिकरण' दोष आवेगा।
४-परस्पराश्रय दोष जीव स्व की अपेक्षासे सत् है और कर्म परवस्तु है उस अपेक्षासे जीव असत् है, तथा कर्म उसकी अपनी अपेक्षासे सत् है और जीवकी अपेक्षासे कर्म असत है। ऐसा होनेपर भी जीव कर्मको बाँधे-छोड़े-उसका क्षय करे वैसे ही कम कमजोर हों तो जीव धर्म कर सकता है-ऐसा माननेमें 'परस्पराश्रय' दोष है। जीव कर्म इत्यादि समस्त द्रव्य सदा स्वतंत्र हैं और स्वयं स्व से स्वतंत्ररूपसे कार्य करते है ऐसा माननेसे 'परस्पराश्रय' दोष नहीं आता।
५-संशय दोष जीव अपने रागादि विकार भावको जान सकता है, स्वद्रव्यके श्रावनसे रागादि दोषका अभाव हो सकता है परन्तु उसे टालनेका प्रयत्न नहीं करता और जो जड़कर्म और उसके उदय हैं उसको नहीं देख सकता तथापि ऐसा माने कि 'कर्मका उदय पतला पडे, कमजोर हो, कर्मके आवरण हटे तो धर्म या सुख हो सकता है; जड़कर्म बलवान हो तो जीव गिरा जाय, अधर्मी या दुःखी होजाय, (जो ऐंसा माने) उसके सशय-(-भय) दूर नही होता अथवा निज आत्माश्रित निश्चय रत्नत्रयसे धर्म होगा या पुण्यसे-व्यवहार करते २ धर्म होगा? ऐसा संशय दूर किये बिना जीव स्वतंत्रताको श्रद्धा और सच्चा पुरुषार्थ नहीं कर सकता और विपरीत अभिप्राय रहितपनेका सच्चा पुरुषार्थ विना, किसी जीवको कभी धर्म या सम्यग्दर्शन