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अध्याय ५ सूत्र ३२
४३६ पराहनाय तो निम्नलिखित दोप पावें:
१--संकर दोप दोपएरप हो जाये तो संकर दोर आता है।
गगनाम् गुगपत्प्राप्तिः संकरः"-जो अनेक द्रव्योंके एक रूपताकी मामि मोफर दोग है। जीव अनादि से अजान दशामे शरीरको, शरीरकी मिशागरगोजे, भाव इन्द्रियोको तथा उनके विषयोंको स्व से पारूप मानता है यह शेय-भायक संकर दोप है। इस सूत्रमें कहे हुये परत करपले गमभने पर अर्थात् जीव जोवरूपसे है कर्मरूपसे नही
की से पगं, इन्द्रिया, परीर, जीवको विकारी और अपूर्ण दशा है मोर जीपमा स्वरूप (-ज्ञान ) नहीं है ऐसा समझकर भेद विमान प्रगट करे सर प शायक संकर दोप दूर होता है अर्थात् सम्यन प्रगट होनेपर ही संकर दोप टलता दूर होता है।
जीप जिसने मोमे मोहकामके साथ युक्त होकर दुःख भोगता है वह मार मापनः संगार दोष है । उस दोपको दूर करनेका प्रारंभ सम्यग्दर्शन प्रगट होने पर होता है और अपायज्ञानस्वभावका अच्छी तरह पालंबन पारने गया पपायभाव दूर होनेपर वह संकर दोप सर्वथा दूर होता है।
२-व्यतिकर दोप यदि जोय जच्या पुछ कार्य करे और जड़ कम या शरीर जीवका गुछ मना-बुरा करे तो जीव जरूप हो जाय और जड चेतनरूप हो जाय तथा एक जीवके दूसरे जीय पुग्छ भला बुरा करें तो एक जीव दूसरे जीवरुप हो जाय । इस तरह एकका विषय दूसरेमें चला जायगा इसके व्यतिफर दोष भावेगा-"परस्परविपयगमनं व्यतिकरः।"
जदकर्म हलका हो और मार्ग दे तो जीवके धर्म हो और जडकर्म बनवान हो तो जीव धर्म नहीं कर सकता-ऐसा माननेमें संकर और व्यतिकर दोनों दोष पाते हैं।
जीव मोक्षका-धर्मका पुरुषार्थ न करे और अशुभभावमे रहे तब उसे बहकार्गी जीव कहा जाता है, अथवा यों कहा जाता है कि-'उसके कर्म