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अध्याय ५ सूत्र ३२
४४१ नहीं हो सकता। कोई भी द्रव्य दूसरोंका कुछ कर सकता है या नहीं ऐसी मान्यतामें संशय दोष भाता है वह सच्ची समझसे दूर करना चाहिये।
६-अनवस्था दोष जीव अपने परिणामका ही कर्ता है और अपना परिणाम उसका कर्म है । सर्व द्रव्योंके अन्य द्रव्योंके साथ उत्पाध-उत्पादक भावका अभाव है, इसीलिये अजीवके साथ जीवके कार्य-कारणत्व सिद्ध नहीं होता। यदि एक द्रव्य दूसरेका कार्य करे, दूसरा तीसरेका कार्य करे-ऐसी परंपरा मानने पर अनन्त द्रव्य है उसमें कोन द्रव्य किस द्रव्यका कार्य करे इसका कोई नियम न रहेगा और इसीलिये अनवस्था दोष आवेगा। परन्तु यदि ऐसा नियम स्वीकार करें कि प्रत्येक द्रव्य अपना ही कार्य करता है परका कार्य नही कर सकता तो वस्तुको यथार्थ व्यवस्था ज्यों की त्यों बनी रहती है और उसमें कोई अनवस्था दोष नहीं आता।
७-अप्रतिपचि दोष प्रत्येक द्रव्यका द्रव्य त्व-क्षेत्रत्व-कालत्व (-पर्यायत्व) और भावत्व (-गुण) जिस प्रकारसे है उसीप्रकारसे उसका यथार्थ ज्ञान करना चाहिये। जीव क्या कर सकता और क्या नही कर सकता वैसे ही जड़ द्रव्य क्या कर सकते और क्या नहीं कर सकते-इसका ज्ञान न करना और तत्त्वज्ञान करनेका प्रयत्न नहीं करना सो अप्रतिपत्ति दोष है ।
८-विरोध दोष __ यदि ऐसा माने कि एक द्रव्य स्वयं स्व से सत् है और वही द्रव्य परसे भी सत् है तो 'विरोध' दोष माता है । क्योकि जीव जैसे अपना कार्य करे वैसे पर द्रव्यका-कर्म अर्थात् पर जीव मादिका-भी कार्य करे तो विरोध दोष लागू होता है।
९-अभाव दोष यदि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कार्य करे तो उस द्रव्यका नाश हो और एक द्रव्यका नाश होतो क्रम क्रमसे सर्व द्रव्योका नाश होगा, इस तरह उसमें 'प्रभाव' दोष पाता है।
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