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अध्याय ६ कुछ स्पष्टीकरण
७३५ ज्ञानाचारके सम्बन्धमें-स्वाध्यायका काल विचारते है, अनेक प्रकारकी विनयमे प्रवृत्ति करते है, शास्त्रको भक्तिके लिये दुर्धर उपधान करते है-प्रारम्भ करते हैं, शास्त्रका भले प्रकारसे बहुमान करते है, गुरु आदिमें उपकार प्रवृत्तिको नही भूलते; अर्थ-व्यंजन और इन दोनोंकी शुद्धतामें सावधान रहते हैं।
चारित्राचारके सम्बन्धमें-हिंसा, झूठ, चोरी स्त्री सेवन और परिग्रह इन सबसे विरतिरूप पंचमहाव्रतमें स्थिर वृत्ति धारण करते हैं; योग ( मन-वचन-काय ) के निग्रहरूप गुप्तियोके अवलम्बनका उद्योग करते है। ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपरण और उत्सर्ग इन पाँच समितियोमे सर्वथा प्रयत्नवन्त रहते हैं।
तपाचारके सम्बन्धमें-अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेशमे निरन्तर उत्साह रखता है; प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, व्युत्सर्ग, स्वाध्याय, और ध्यानके लिये चित्तको वशमें करता है ।
वीर्याचारके सम्बन्धमें-कर्मकाडमे सर्वशक्तिपूर्वक वर्तता है ।
ये जीव उपरोक्त प्रमाणसे कर्मचेतनाकी प्रधानता पूर्वक अशुभभावकी प्रवृत्ति छोडते है, किन्तु शुभभावकी प्रवृत्तिको आदरने योग्य मानकर अगीकार करते है, इसीलिये सम्पूर्ण कियाकाडके आडम्बरसे अतिक्रांत दर्शनज्ञान-चारित्रकी ऐक्यपरिणतिरूप ज्ञान चेतनाको वे किसी भी समय प्राप्त नहीं होते।
_ वे बहुत पुण्यके भारसे मथर (-मंद, सुस्त ) हुई चित्तवृत्तिवाले वर्तते है इसीलिये स्वर्गलोकादि क्लेश प्राप्त करके परम्परासे दीर्घकाल तक ससार सागरमें परिभ्रमण करते है ( देखो पंचास्तिकाय गाथा १७२ की टीका )
वास्तवमें तो शुद्धभाव ही-संवर-निर्जरारूप है। यदि शुभभाव 'यथार्थमे संवर-निर्जराका कारण हो तो केवल व्यवहारावलम्बीके समस्त प्रकारका निरतिचार व्यवहार है इसीलिये उसके शुद्धता प्रगट होनी