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अध्याय ६ सूत्र
६८३ (६) नाग्न्य-नग्न रहनेपर भी स्व मे किसी प्रकारका विकार न होने देना सो नाग्न्य परीषह जय है । प्रतिकूल प्रसंग आनेपर वस्त्रादि पहिन लेना नाग्न्य परीषह नहीं है किंतु यह तो मार्ग से ही च्युत होना है और परीषह तो मार्गसे च्युत न होना है।
(७) अरति-अरतिका कारण उपस्थित होनेपर भी संयममें परति न करनी सो अरतिपरोषहजय है।
(C) स्त्री-स्त्रियोके हावभाव प्रदर्शन आदि चेष्टाको शांत भावसे सहन करना अर्थात् उसे देखकर मोहित न होना सो खी परीषह जय है।
(९) चर्या-गमन करते हुए खेद खिन्न न होना सो चर्यापरीषह जय है।
(१०) निषद्या-नियमित काल तक ध्यानके लिये आसनसे च्युत न होना सो निषद्यापरीषह जय है ।
(११) शय्या-विपम, कठोर, कंकरीले स्थानोमे एक करवटसे निद्रा लेना और अनेक उपसर्ग आने पर भी शरीरको चलायमान न करना सो शय्यापरीषहजय है।
(१२) आक्रोश-दुष्ट जीवो द्वारा कहे गये कठोर शब्दोंको शांतभाव से सह लेना सो आक्रोशपरीषहजय है।
(१३) वध-तलवार आदिसे शरीर पर प्रहार करने वालेके प्रति भी क्रोध न करना सो वधपरीषहजय है ।
(१४) याचना-अपने प्राणोंका वियोग होना भी संभव हो तथापि आहारादिकी याचना न करना सो याचनापरीषहजय है।
नोटः-याचना करनेका नाम याचना परीषह जय नहीं है किन्तु याचना न करनेका नाम याचना परीषह जय है। जैसे अरति-द्वेष करनेका नाम अरति परीषह नही, कितु अरति न करना सो अरति परीपहजय है, उसी तरह याचनामे भी समझना । यदि याचना करना परीषह जय हो