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मोक्षशास्त्र तो गरीब लोग प्रादि बहुत याचना करते हैं इसलिये उन्हें अधिक धर्म हो किंतु ऐसा नहीं है। कोई कहता है कि 'याचना की, इसमें मान की कमीन्यूनता से परीषह जय कहना चाहिये' यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि किसी तरहका तीन कषायी कार्यके लिये यदि किसी प्रकारको कपाय छोड़े तो भी वह पापी ही है, जैसे कोई लोभके लिये अपने अपमानको न समझे तो उसके लोभकी अतितीव्रता ही है, इसीलिये इस अपमान करानेसे भी महापाप होता है, तथा यदि स्वयंके किसी तरहकी इच्छा नही है और कोई स्वयं अपमान करे तो उसे सहन करने वालेके महान धर्म होता है। भोजन के लोभसे याचना करके अपमान कराना सो तो पापही है, धर्म नहीं। पुनश्च वस्त्रादिकके लिये याचना करना सो पाप है, धर्म नहीं, (मुनिके तो वस्त्र होते ही नही) क्योकि वस्त्रादि धर्मके अंग नही हैं, वे तो शरीर सुखके कारण है, इसीलिये उनकी याचना करना याचना परीपह जय नही किन्तु याचना दोष है अतएव याचना का निषेध है ऐसा समझना ।
याचना तो धर्मरूप उच्चपदको नीचा करती है और याचना करने से धर्मकी हीनता होती है।
(१५) अलाभ-आहारादि प्राप्त न होने पर भी अपने ज्ञानानन्दके अनुभव द्वारा विशेष सन्तोष धारण करना सो अलाभपरीषहजय है ।
(१६) रोग-शरीरमें अनेक रोग हैं तथापि शांतभावसे उसे सहन कर लेना सो रोगपरीषहजय है ।
(१७) तृणस्पर्श-चलते समय पैरमे तिनका, कांटा, कंकर आदि लगने या स्पर्श होनेपर आकुलता न करना सो तृणस्पर्शपरीषहजय है।
(१८) मल-मलिन शरीर देखकर ग्लानि न करनासो मलपरीपह जय है।
(१९) सत्कारपुरस्कार--जिनमें गुरणोंकी अधिकता है तथापि यदि कोई सत्कारपुरस्कार न करे तो चित्तमे कलुषता न करना सो सत्कारपुरस्कार परीषह जय है। (प्रशंसाका नाम सत्कार है और किसी अच्छे