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________________ अध्याय ६ सूत्र ६ ६८५ कार्यमें मुखिया बनाना सो पुरस्कार है)। (२०) प्रज्ञा-ज्ञानकी अधिकता होने पर भी मान न करना सो प्रज्ञा परीषहजय है। (२१) अज्ञान-ज्ञानादिकको हीनता होनेपर लोगो द्वारा किये गये तिरस्कारको शांतभावसे सहन कर लेना और स्वयं भी अपने ज्ञानको न्यूनता का खेद न करना सो अज्ञानपरीपहजय है। (२२)अदर्शन-अधिक समय तक कठोर तपश्चरण करने पर भी मुझे अवधिज्ञान तथा चारण ऋद्धि आदिको प्राप्ति न हुई इमलिये तपश्चर्या आदि धारण करना व्यर्थ है-ऐमा अश्रद्धाका भाव न होने देना सो अदर्शन परीषह जय है। इन बावीस परोषहोको अाकुलता रहित जीतनेसे संवर, निर्जरा होती है। ४-इस सूत्रका सिद्धान्त इन सूत्रमे यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया है कि परद्रव्य प्रति जड कर्मका उदय अथवा शरीरादि नोकर्म का सयोग-वियोग जीवके कुछ विकार नहीं कर सकते। उसका प्रतिपादन कई तरहसे होता है सो कहते हैं-- (१) भूख और प्यास ये नोकर्मरूप शरीरको अवस्या है, यह अवस्था चाहे जैसी हो तो भी जीवके कुछ नही कर सकती। यदि जीव शरीरकी उस अवस्थाको ज्ञेयरूपसे जाने-उसमे रागादि न करे तो उसके शुद्धता प्रगट होती है और यदि उस समय राग, द्वेप करे तो नमुना प्रगट होती है । यदि जीव शुद्ध अवस्था प्रगट करे तो परोपहजय महलावे तथा संवर-निर्जरा हो और यदि अशुद्ध अवस्था प्रगट करे नो रोग है । सम्यग्दृष्टि जीव ही शुद्ध अवस्था प्रगट कर सकता है। मिष्याति शुद्ध अवस्था नहीं होती, इसलिये उसके परीपहजय भी नही होगा। (२) सम्यग्दृष्टियोके नीची अवस्थामै चारिय मित्रमावती अर्थात् आशिक शुद्धता और पाशिक अशुद्धता होनी है। म शुद्धता होती है उतने अशमै संवर-निर्जरा है और यह पयार्य नाभि-:
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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