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अध्याय ४ उपसंहार
सप्तभंगीमें लागू होनेवाले नय
'अस्ति' स्वरूपसे है इसलिये निश्चयनयका विषय है, और नास्ति पर रूपसे है इसलिये व्यवहारनयका विषय है। शेष पाँच भंग व्यवहारनयसे हैं क्योंकि वे कुछ या अधिक अंशमे परकी अपेक्षा रखते हैं । लागू पड़नेवाले नय
अस्तिमें
अस्तिके निश्चय अस्ति और व्यवहार अस्ति ये दो भेद हो सकते
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हैं । जीवकी शुद्ध पर्याय निश्चयनयसे अस्ति है क्योंकि वह जीवका स्वरूप
है । श्रर विकारी पर्याय व्यवहारनयसे अस्तिरूप है क्योंकि वह जीवका स्वरूप नहीं है | विकारी पर्याय अस्तिरूप है अवश्य किन्तु वह टालने योग्य है; व्यवहारनयसे वह जीवका है और निश्चयनयसे जीवका नहीं है ।
अस्ति में दूसरे प्रकार से लागू पड़नेवाले नय
अस्तिका अर्थ 'सत्' होता है, सत् उत्पाद व्यय घ्रौव्ययुक्त होता है उसमे धीय निश्चयनयसे अस्ति है और उत्पाद - व्यय व्यवहारनयसे हैं । जीवका धौव्य स्वरूप त्रिकाल अखण्ड शुद्ध चैतन्य चमत्कार मात्र है, वह कभी विकारको प्राप्त नही हो सकता; मात्र उत्पादरूप पर्यायमें पराश्रयसे क्षणिक विकार होता है । जीव जब अपना स्वरूप समझनेके लिये अपने अखण्ड घ्रौव्य स्वरूपकी ओर उन्मुख होता है तब शुद्ध पर्याय प्रगट होती है । प्रमाण
श्रुतप्रमाणका एक अंश नय है । जहाँ श्रुतप्रमाण नहीं होता वहाँ नय नहीं होता, जहाँ नय होता है वहाँ श्रुतप्रमाण होता ही है । प्रमाण उन दोनों नयोके विषयका यथार्थ ज्ञान करता है इसलिये अस्तिनास्तिका एक साथ ज्ञान प्रमाण ज्ञान है ।
निक्षेप
यहाँ जीव ज्ञेय है ज्ञेयका अंश निक्षेप है । अस्ति, नास्ति इत्यादि धर्म जीवके अंश है । जीव स्वज्ञेय है और अस्तिनास्ति इत्यादि स्वज्ञेयके श्रंशरूप निक्षेप है; यह भाव निक्षेप है । उसका यथार्थ ज्ञान नय है । निक्षेप विषय है और नय उसका विषय करनेवाला ( विषयी ) है |
स्वज्ञेय
जीव स्वज्ञेय है तथा स्वयं ज्ञान स्वरूप है । द्रव्य-गुण- पर्याय ज्ञेय