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मोक्षशास्त्र
हैं और उनका त्रिकाल जाननेका स्वभाव गुरण है; तथा ज्ञानकी वर्तमान पर्याय स्वज्ञेयको जानती है । स्वज्ञेयके जाननेमें यदि स्व-परका भेद विज्ञान हो तब ही ज्ञानकी सच्ची पर्याय है ।
अनेकांत
[ स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा ३११-३१२ पृष्ठ ११८ से १२० के आधारसे ]
१ - वस्तुका स्वरूप अनेकान्त है । जिसमें अनेक प्रत अर्थात् धर्म हो उसे अनेकान्त कहते हैं । उन धर्मों में अस्तित्व नास्तित्व, एकत्व, अनेकत्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, भेदत्व, अभेदत्व, अपेक्षात्व, अनपेक्षात्व, देवसाध्यत्व, पौरुषसाध्यत्व, हेतुसाध्यत्व, आगमसाध्यत्व, अंतरंगत्व, बहिरंगत्व, द्रव्यत्व, पर्यायत्व, इत्यादि सामान्य धर्म हैं । और जीवत्व, अजीवत्व, स्पर्शत्व, रसत्व, गंधत्व, वर्णत्व, शब्दत्व, शुद्धत्व, अशुद्धत्व मूर्तत्व अमूर्तत्व, संसारीत्व, सिद्धत्व, अवगाहहेतुत्व, गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, वर्तनाहेतुत्व इत्यादि विशेष धर्म हैं । वस्तुको समझनेके लिये प्रश्न उठने पर प्रश्नके वशसे उन धर्मोके सम्बन्ध में विधिनिषेधरूप वचनोंके सात भंग होते हैं । उन सात भंगों में 'स्यात्' यह पद लगाया है । 'कथंचित्' किसीप्रकार इस अर्थ में 'स्यात् ' शब्द है उसके द्वारा वस्तुका अनेकान्त स्वरूप सिद्ध करना चाहिये ।
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सप्तभंगी और अनेकांत
( १ ) १. वस्तु स्यात् अस्तिरूप है अर्थात् किसीप्रकार अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल भावरूपसे अस्तिरूप कही जाती है । २. वस्तु स्यात् नास्तिरूप है अर्थात् परवस्तुके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूपसे नास्तित्वरूप कही जाती है । ३. वस्तु स्यात् अस्तित्व - नास्तित्वरूप है - यह वस्तुमें अस्तिनास्ति - दोनों धर्म रहते हैं, उसे वचनके द्वारा क्रमसे कह सकते हैं । ४. और वस्तु स्यात् प्रवक्तव्य है; क्योकि वस्तुमे अस्ति नास्ति दोनों धर्म एक ही समय रहते हैं किन्तु वचनके द्वारा एक साथ दोनों धर्म कहे नही जा सकते; इसलिये किसी प्रकारसे वस्तु प्रवक्तव्य है । ५. अस्तित्वरूपसे वस्तु स्वरूप कहा जा सकता है, किन्तु ग्रस्ति नास्ति दोनों धर्मं वस्तुओं एक साथ