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मोक्षशाख (१) मिथ्यादर्शन सहित हीनाचारमें तत्पर रहनी । (२) अत्यन्त मान करना। (३ ) शिलाभेदकी तरह अत्यन्त तीन क्रोध करना। (४) अत्यन्त तीव्र लोभका अनुराग रहना । ( ५ ) दया रहित परिणामोंका होना। (६) दूसरोंको दुःख देनेका विचार रखना ! , (७) जीवोंको मारने तथा बांधनेका भाव करना । (८) जीवोंके निरन्तर घात करनेका परिणाम रखना।
(६) जिसमें दूसरे प्राणीका वध हो ऐसे झूठे वचन बोलनेका स्वभाव रखना।
(१०) दूसरोंके धन हरण करनेका स्वभाव रखना। (११) दूसरोंकी सियोंके आलिंगन करनेका स्वभाव रखना। (१२) मैथुन सेवनसे विरक्ति न होना। (१३) अत्यन्त प्रारम्भमें इन्द्रियोंकी लगाये रखना। " . (१४) काम भोगोंकी अभिलाषाकी सदैव बढ़ाते रहना। (१५) शील सदाचार रहित स्वभाव रखना। (१६) अभक्ष्य भक्षणके ग्रहण करने अथवा करानेका भाव रखना। (१७) अधिक काल तक वैरं बांधे रखना। . . . (१८) महा क्रूर स्वभाव रखना ।' .. (१९) विना विचारे रोने-कूटनेका स्वभाव रखना। (२०) देव-गुरु-शास्त्रोंमें मिथ्या दोष लगाना। (२१) कृष्ण लेश्याके परिणाम रखना।
(२२) रौद्रध्यानमें मरण करना। इत्यादि लक्षणवाले परिणाम नरकायुके कारण होते हैं ॥ १५ ॥
अब तिर्यंचायुकै आस्रवके कारण बतलाते हैं ।
माया तेर्यग्योनस्य ॥ १६॥