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मध्याय ६ सूत्र १४-१५
मोहनीय कर्मके प्रास्रवका कारण नहीं है । यदि अंतिम अंश भी बन्ध का कारण हो तो कोई भी जीव व्यवहारमें कर्म रहित नहीं, हो सकता, ( देखो अध्याय ५ सूत्र ३४ की टीका ) ॥ १४ ॥
श्रव श्रायु कर्मके आस्रवके कारण कहते हैंनरकायुके आस्रवके कारण बह्वारंभपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः ॥ १५ ॥
अर्थ - [ बह्वारंभपरिग्रहत्वं ] बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह होना ये [ नारकस्यायुषः ] नरकायुके श्रास्रवके कारण हैं ।,
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१. बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह रखनेका जो भाव है सो नरकायुके आलवका कारण है । 'बहु' शब्दसंख्यावाचक तथा परिणामवाचक है; ये दोनों अर्थ यहाँ लागू होते हैं। अधिक संख्यामे आरंभ, परिग्रह रखनेसे नरकायुका श्रास्रव होता है । आरभ परिग्रह रखनेके बहु 'परिणामसे नरकायुका श्रास्रव होता है; बहु आरंभ - परिग्रहका जो भाव है सो उपादान कारण है और जो बाह्य बहुत आरंभ - परिग्रह है सो निमित्त - कारण है ।
२. आरम्भ - हिंसादि प्रवृत्तिका नाम आरम्भ है । जितना भी आरम्भ किया जाता है उसमें स्थावरादि जीवोका नियमसे वध होता है । प्रारम्भके साथ 'बहु' शब्दका समास करके ज्यादा आरम्भ अथवा बहुत तीव्र परिणामसे जो आरम्भ किया जाता है वह बहु आरम्भ है, ऐसा अर्थ समझना ।
३. परिग्रह – 'यह वस्तु मेरी, है, में इसका स्वामी हूँ' ऐसा परमे अपनेपनका अभिमान अथवा पर वस्तुमें 'यह मेरी है' ऐसा जो संकल्प है सो परिग्रह है । केवल बाह्य धन-धान्यादि पदार्थोंके हो 'परिग्रह' नाम लागू होता है, यह बात नही है । बाह्यमे किसी भी पदार्थके न होने पर भी यदि भावमे ममत्व हो तो वहाँ भी परिग्रह कहा जा सकता है ।
४. सूत्रमें जो नरकायुके श्रास्रवके कारण बताये हैं वे सक्षेपसे हैं, उन भावोंका विस्तृत वर्णन निम्नप्रकार है: