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अध्याय ६ सूत्र.१६
५२७ मर्थ-[माया ] माया-छलकपट [ तैर्यग्योनस्य ] तियंचायुके आस्रवका कारण है।
टीका जो आत्माका कुटिल स्वभाव है सो माया है, इससे तिर्यंच योनि का प्रास्रव होता है । तिर्यंचायुके प्रास्रवके कारणका इस सूत्रमें जो वर्णन किया है वह संक्षेपमें है। उन भावोंका विस्तृत वर्णन निम्नप्रकार है:
(१) मायासे मिथ्या धर्मका उपदेश देना। (२) बहुत प्रारम्भ-परिग्रहमे कपटयुक्त परिणाम करना । (३) कपट-कुटिल कर्ममे तत्पर होना । (४) पृथ्वी भेद सहश क्रोधीपना होना। (५) शीलरहितपना होना।
(६) शब्दसे-चेष्टासे तीव्र मायाचार करना । (७) परके परिणाममे भेद उत्पन्न कराना (4) अति अनर्थ प्रगट करना। (९) गंध-रस-स्पर्शका विपरीतपना होना। (१०) जाति-कुल शीलमें दूषण लगाना । (११) विसवादमे प्रीति रखना। (१२) दूसरेके उत्तम गुणको छिपाना । (१३) अपने मे जो गुण नही हैं उन्हे भी बतलाना । (१४) नील-कपोत लेश्यारूप परिणाम करना। (१५) आर्तध्यानमें मरण करना। इत्यादि लक्षणवाले परिणाम तिर्यंचायुके आस्रवके कारण हैं ॥१६॥
अब मनुष्यायुके आस्रवके कारण बतलाते हैं अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य ॥ १७ ॥
अर्थ-[ अल्पारम्भपरिग्रहत्वं ] थोड़ा आरम्भ और थोड़ा परिग्रहपन [ मानुषस्य ] मनुष्य आयुके प्रास्रवका कारण है।
टीका नरकायुके प्रास्रवका कथन १५ वें सूत्रमें किया जा चुका है, उस