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________________ अध्याय २ सूत्र ३१-३२ "२६६ माता-पिताके रज और वीर्यके बिना ही शरीरकी रचना होना सो सम्मूर्छन जन्म है। गर्भजन्म-खीके उदरमें रज और वीर्यके मेलसे जो जन्म [Conception] होता है उसे गर्भजन्म कहते हैं । उपपादजन्म-माता पिताके रज और वीर्यके बिना देव और नारकियोके निश्चित स्थान-विशेषमें उत्पन्न होनेको उपपादजन्म कहते हैं। यह उपपादजन्मवाला शरीर वैक्रियिक रजकरणोंका बनता है। २-समन्ततः+मूर्छन-से संमूर्छन शब्द बनता है। यहाँ समन्ततःका अर्थ चारों ओर अथवा जहां-तहाँसे होता है और मूर्छनका अर्थ शरीरका बन जाना है। ३. जीव अनादि अनंत है, इसलिये उसका जन्म-मरण नहीं होता किन्तु जीवको अनादिकालसे अपने स्वरूपका भ्रम (मिथ्यादर्शन) बना हुआ है इसलिये उसका शरीरके साथ एक क्षेत्रावगाह संबंध होता है, और वह अज्ञानसे शरीरको अपना मानता है । और अनादिकालसे जीवकी यह विपरीत मान्यता चली आ रही है कि मैं शरीरकी हलन-चलन आदि क्रिया कर सकता हूँ, शरीरकी क्रियासे धर्म हो सकता है, शरीरसे मुझे सुख दुःख होते है इत्यादि जबतक यह मिथ्यात्वरूप विकारभाव जीव करता रहता है तब तक जीवका नये नये शरीरोंके साथ सम्बन्ध होता रहता है । उस नये शरीर के संबंध [संयोग] को जन्म कहते हैं और पुराने शरीरके वियोगको मरण कहते हैं । सम्यग्दृष्टि होनेके बाद जब तक चारित्र की पूर्णता नही होती तव तक जीवको नया शरीर प्राप्त होता है। उसमे जीवका कषायभाव निमित्त है ॥ ३१॥ योनियोंके भेद सचित्तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तधोनयः॥३२॥ अर्थ-[ सचित्त शीत संवृताः ] सचित्त, शीत, संवृत [सेतरा] उससे उल्टी तीन-अचित्त, उष्ण, विवृत्त [च एकशः मिश्राः] और क्रमसे
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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