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________________ मोक्षशास्त्र अर्थ - विग्रहगतिमें [ एकं द्वो वा तीन ] एक दो अथवा तीन समय तक [ श्रनाहारकः ] जीव अनाहारक रहता है । टीका २६८ १. आहार—प्रदारिक, वैक्रियिक, और आहारकशरीर तथा छहपर्याप्ति के योग्य पुद्गल परमाणुत्रों के ग्रहणको आहार कहा जाता है । २- उपरोक्त आहारको जीव जब तक ग्रहण नहीं करता तब तक वह अनाहारक कहलाता है । संसारी जीव अविग्रहगति में श्राहारक होता है, परन्तु एक दो या तीन मोड़ावाली गतिमें एक दो या तीन समयतक अनाहारक रहता है, चौथे समय में नियमसे आहारक हो जाता है । ३ - यह ध्यान में रखना चाहिये कि इस सूत्रमें नोकर्मकी अपेक्षासे अनाहारकत्व कहा है । कर्मग्रहरण तथा तेजस परमाणुओंका ग्रहण तेरहवे गुणस्थानतक होता है । यदि इस कर्म और तैजस परमाणुके ग्रहणको आहारकत्व माना जाय तो वह अयोगी गुणस्थानमें नही होता । ४- - विग्रहगति से अतिरिक्त समयमें जीव प्रतिसमय नोकर्मरूप आहार ग्रहण करता है । ५– यहाँ आहार - अनाहार और ग्रहरण शब्दोंका प्रयोग हुआ है, वह मात्र निमित्त नैमित्तिक संबंध बतानेके लिये है । वास्तवमें ( निश्चय ष्ट ) आत्मा के किसी भी समय किसी भी परद्रव्यका ग्रहण या त्याग नही होता, भले ही वह निगोदमे हो या सिद्धमे ॥ ३० ॥ जन्म के भेद सम्मूर्च्छनगर्भोपपादा जन्म ॥ ३१ ॥ अर्थ – [ सम्मूर्च्छनगर्भ उपपादाः ] सम्मूर्च्छन, गर्भ और उपपाद तीन प्रकारका [ जन्म ] जन्म होता है | टीका १. जन्म - नवीन शरीरको धारण करना जन्म है । सम्मूर्च्छनजन्म—अपने शरीरके योग्य पुद्गल परमाणुओंके द्वारा,
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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