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अध्याय २ सूत्र २५-२६-३०
२६७ के दूसरे आकाश प्रदेश तक जाने में जो समय लगता है वह एक समय है। यह छोटेसे छोटा काल है।
३-लोकमें ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ जानेमें जीवको तीन से अधिक मोड़ा लेना पड़ते हों।
४-विग्रहगतिमें जीवको चैतन्यका उपयोग नहीं होता । जब जीव की उसप्रकारकी योग्यता नही होती तब द्रव्येन्द्रियाँ भी नही होती। ऐसा निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है । जब जीवको भावइन्द्रियके उपयोगरूप परिणमित होनेकी योग्यता होती है तब द्रव्येन्द्रियाँ अपने कारणसे स्वयं उपस्थित होती हैं। वह यह सिद्ध करता है कि जब जीवकी पात्रता होती है तव उसके अनुसार निमित्त स्वयं उपस्थित होता है, निमित्तके लिये राह नही देखनी पड़ती ॥ २८ ॥
अविग्रहगतिका समय एकसमयाऽविग्रहा ॥ २६ ॥ अर्थ-[ प्रविग्रहा ] मोडरहित गति [ एकसमया ] एक समय मात्र ही होती है, अर्थात् उसमे एक समय ही लगता है।
टीका १-जिस समय जीवका एक शरीरके साथ का संयोग छूटता है उसी समय, यदि जीव अविग्रह गतिके योग्य हो तो दूसरे क्षेत्रमे रहनेवाले अन्य शरीरके योग्य पुदलोके साथ (शरीरके साथ) सम्बन्ध प्रारम्भ होता है । मुक्त जीवोको भी सिद्धगतिमे जानेमे एक ही समय लगता है यह गति सीधी पंक्ति में ही होती है।
२-एक पुलको उत्कृष्ट वेगपूर्वक गति करनेमे चौदह राजू लोक अर्थात् लोकके एक छोरसे दूसरे छोर तक (सीधी पंक्तिमें ऊपर या नीचे) जाने मे एक समय ही लगता है ॥२६॥
विग्रहगतिमें आहारक-अनाहारककी व्यवस्था एक द्वौत्रीन्वानाहारकः ॥ ३०॥