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अध्याय ८ सूत्र १
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विषयोंमें प्रवृत्ति हो उसे अविरति समझे किंतु हिंसामें मूल जो प्रमाद परिगति है तथा विषय सेवनमें अभिलाषा मूल है उसे न देखे तो खोटी मिथ्या मान्यता दूर नही होती । यदि बाह्य क्रोध करने को कषाय समझे किन्तु अभिप्रायमें जो राग द्वेष रहता है वही मूल क्रोध है उसे न पहिचाने तो मिथ्या मान्यता दूर नहीं होती। जो बाह्य चेष्टा हो उसे योग समझे किंतु शक्तिभूत (आत्मप्रदेशों के परिस्पंदनरूप) योगको न जाने तो मिथ्या मान्यता दूर नही होती । इसलिये उनके अन्तरग भावको पहिचानकर उस संबंधी अन्यथा मान्यता दूर करनी चाहिये । ( मोक्षमार्ग प्रकाशक )
५. मिथ्यादर्शनका स्वरूप
(१) अनादिसे जीवके मिथ्यादर्शनरूप अवस्था है । समस्त दुःखों का मूल मिथ्यादर्शन है । जीवके जैसा श्रद्धान है वैसा पदार्थ स्वरूप न हो और जैसा पदार्थस्वरूप न हो वैसा ये माने, उसे मिथ्यादर्शन कहते हैं । जीव स्व को और शरीरको एक मानता है; किसी समय शरीर दुबला हो, किसी समय मोटा हो, किसी समय नष्ट हो जाय और किसी समय नवीन पैदा हो तव ये सब क्रियायें शरीराधीन होती हैं तथापि जीव उसे अपने आधीन मानकर खेदखिन्न होता है ।
दृष्टांत - जैसे किसी जगह एक पागल बैठा था । वहाँ अन्य स्थान से आकर मनुष्य, घोड़ा और घनादिक उतरे, उन सबको वह पागल अपना मानने लगा, किंतु, वे सभी अपने २ आधीन हैं, अतः इसमें कोई आवे, कोई जाय और कोई अनेक अवस्थारूपसे परिणमन करता है, इसप्रकार सबकी क्रिया अपने अपने आधीन है तथापि यह पागल उसे अपने आधीन मानकर खेदखिन्न होता है ।
सिद्धान्त - उसीप्रकार यह जीव जहां शरीर धारण करता है वहां किसी अन्य स्थानसे आकर पुत्र, घोड़ा, घनादिक स्वयं प्राप्त होता है यह जीव उन सबको अपना जानता है; परन्तु ये सभी अपने २ आधीन होने से कोई आते कोई जाते और कोई अनेक अवस्थारूपसे परिणमते हैं, क्या -यह उनके आधीन है ? ये जीवके श्लाघीन नही हैं, तो भी यह जीव उसे अपने श्राधीन मानकर खेदखिन्न होता है ।