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एकता मिले नाही । एक एक जीव द्रव्य विषै अन्य अन्यरूप औदयिक भाव होंहि तिन औदयिकभाव अनुसारी ज्ञानकी अन्य अन्यता जाननी । परन्तु विशेष इतनो जु कोऊ जातिको ज्ञान ऐसो न होइ जु परसत्तावलम्बकशीली होइ करि मोक्षमार्ग साक्षात् कहे काहे ते अवस्था प्रवान ( कारण कि अवस्थाके प्रमानमें ) परसत्तावलम्बक है । ने ज्ञानको परसत्तावलम्बी परमार्थता न कहे, जो ज्ञान हो सो स्वसत्तावलम्बनशीली होय ताके नाऊ ज्ञान । ता ज्ञान ( उसज्ञान ) को सहकारभूत, निमित्तरूप नाना प्रकारके प्रौदयिकभाव होंहि तीन्ह प्रौदयिकभावोको ज्ञाता तमासगीर, न कर्ता न भोक्ता, न अवलम्बी तातै कोऊ यों कहै कि या भांतिके औदयिकभाव होहि सर्वथा, तो फलानों गुणस्थानक कहिए सो झूठो। तिनि द्रव्य को स्वरूप सर्वथा प्रकार जान्यौ नाही । काहेते-यात जु और गुणस्थानकनकी कौन बात चलावै, केवलिके भी औदयिक भावनिको नानात्वता ( अनेक प्रकारता ) जाननी । केवलीके भी औदयिकभाव एकसे होय नाही । काहू केवलि को दण्ड कपाटरूप क्रिया उदय होय, काहू केवलिको नाही । तो केवलिविर्ष भी उदयकी नानात्वता है तौ और गुणस्थानककी कौन बात चलावै । ताते औदयिक * भावके भरोसे ज्ञान नाही ज्ञान स्वशक्ति प्रवान है । स्व-परप्रकाशक ज्ञानकी शक्ति, ज्ञायक प्रमान ज्ञान स्वरूपाचरनरूप चारित्र, यथानुभव प्रमान यह ज्ञाताको सामर्थ्य पनी ।
इन वातनको व्योरो कहांतांई लिखिये कहांताई कहिए । वचनातीत इन्द्रियातीत ज्ञानातीत, तातै यह विचार बहुत कहा लिखहि । जो ज्ञाता होइगो सो थोरी ही लिख्यो बहुत करि समुझेगो जो अज्ञानी होयगो सो यह चिट्ठी सुनगो सही परन्तु समुझेगा नही यह-वचनिका यथाका यथा सुमति प्रवान केवलिवचनानुसारी है। जो याहि सुरणैगो समुझेगो सरदहगो ताहि कल्याणकारी है भाग्यप्रमाण । इति परमार्थ वचनिका
* यहां सम्यग्दृष्टिके शुभोपयोगको प्रौदयिकभाव कहा है और वह प्रौदपिक भावने मंवर निर्जरा नहीं परन्तु बन्ध होता है।