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अध्याय ३ सूत्र २
सात पृथ्विके बिलोंकी संख्या
तासु त्रिंशत्पंचविंशतिपंचदशदश त्रिपंचो ने कनरकशतसहस्राणि पंच चैव यथाक्रमम् ॥ २॥
अर्थ:- :- उन पृथ्वियोमे क्रमसे पहिली पृथ्वीमे तीस लाख, दूसरी में २५ लाख, तीसरीमे १५ लाख, चौथी में १० लाख, पाँचवीमे ३ लाख, छठवीमें पाँच कम एक लाख ( EEEε५) और सातवीमें ५ ही नरक बिले हैं । कुल ८४ लाख नरकवास बिल है ।
टीका
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कुछ लोग मनुष्यगति और तियंचगति यह दो ही गतियाँ मानते हैं क्योंकि वे दो प्रकारके जीवोको ही देखते हैं । उनका ज्ञान सकुचित होनेसे वे ऐसा मानते हैं कि मनुष्य और तिर्यंचगतिमें जो तीव्र दुःख है वही नरक गति है दूसरी कोई नरकगति वे लोग नही मानते । परन्तु उनकी यह मान्यता मिथ्या है, क्योकि मनुष्य और तिर्यंचगतिसे जुदी ऐसी नरकगति उन जीवोंके अशुभ भावका फल है । उसके अस्तित्वका प्रमाण निम्नप्रकार है:नरकगतिका प्रमाण
जो जीव अति कठोर भयंकर दुष्कृत्य करते हैं और यह देखने की आवश्यकता नही समझते कि स्वयं पाप कार्य करते समय दूसरे जीवोंको क्या दुःख होता है तथा जो अपनी अनुकूलतावाली एक पक्ष की दुष्ट बुद्धिमें एकाग्र रहते हैं उन जीवोंको उन क्रूर परिणामोंके फलरूप निरंतर अनंत प्रतिकूलताएँ भोगनेके स्थान अघोलोकमें है, उसे नरकगति कहते हैं ।
देव, मनुष्य, तियंच और नरक, यह चार गतियाँ सदा विद्यमान है, वे कल्पित नही किंतु जीवोंके परिणामका फल हैं । जिसने दूसरेको मारडालनेके क्रूरभाव किये उसके भावमे, अपनी अनुकूलताके सिद्ध करनेमें वाघा डालनेवाले कितने जीव मार डाले जाये जिनको संख्याकी कोई मर्यादा नही है, तथा कितने काल तक मारे जायें उसकी भी मर्यादा नही है इसलिये उसका फल भो अपार अनंत दुःख भोगनेका ही है, ऐसा स्थान नरक है,