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ह - अ० १, सूत्र ७-८ में निश्चय सम्यग्दर्शनादि प्रगट करने के अमुख्य उपाय दिखाये है, वे उपाय अमुख्य अर्थात् भेदों और निमित्तमात्र हैं । यदि उनके आश्रयसे अंशमात्र भी निश्चय धर्म प्रगट हो सके ऐसा माना जाये तो वे उपाय अमुख्य न रहकर, मुख्य ( - निश्चय ) हो जाय ऐसा समझना, प्रमुख्य अर्थात् गौण, और गौण ( उपाय ) को हेय - छोड़ने योग्य कहा है ( देखो प्रवचनसार गाथा ५३ की टीका )
निश्चय सम्यग्दर्शन जिस जीवने स्वसन्मुख होकर प्रगट किया हो वहाँ निमित्त - जो अमुख्य उपाय है वह कैसे कैसे होते है वह इस सूत्र में दिखाते हैं । निमित्त पर पदार्थ है उसे जीव जुटा सकते नहीं; ला सके, ग्रहरण कर सके ऐसा भी नही है । "उपादान निश्चय जहाँ तहाँ निमित्त पर होय" ( बनारसीदासजी ) इस बारेमें मोक्षमार्ग प्रकाशक ( देहली ) पृष्ठ ४५६ में कहा है कि "तातें जो पुरुषार्थं करि मोक्षका उपाय करें है, ताकै सर्व कारण मिले हैं, अर वाकै अवश्य मोक्ष की प्राप्ति हो है ऐसा निश्चय करना ।"
श्री प्रवचनसार गाथा १६ की टीकामे श्री अमृतचन्द्राचार्य भी कहते है कि—
"निश्चयसे परके साथ श्रात्माका कारकताका सम्बन्ध नही है, कि जिससे शुद्धात्म स्वभावकी प्राप्तिके लिये सामग्री ( बाह्य साधन ) ढूंढने की व्यग्रतासे जीव ( व्यर्थं ) परतंत्र होते हैं ।"
१० इस शास्त्र के पृष्ठ ६ में नियमसारका आधार देकर 'निश्चय सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र' परम निरपेक्ष है ऐसा दिखाया है, इससे उसका एक अंग जो 'निश्चयसम्यग्दर्शन' है वह भी परम निरपेक्ष है अर्थात् स्वात्मा के श्राश्रयसे ही और परसे निरपेक्ष ही होता है ऐसा समझना । ( ' ही " शब्द वस्तुस्थितिकी मर्यादारूप सच्चा नियम बतानेके लिये है ) निश्चय - व्यवहार मोक्षमार्गके स्वरूप में कैसा निर्णय करना चाहिये
११ - "निश्चयसे वीतरागभाव ही मोक्षमार्ग है, वीतरागभावनिके