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इस सूत्र में 'निश्चयसम्यग्दर्शन' की व्याख्या की है ऐसा अर्थ करनेके कारण इस शास्त्रमें पृष्ठ १६ से २० में स्पष्टतया दिखाया है वह जिज्ञासुत्रों को सावधानता पूर्वक पढ़ने की विनती करनेमें आती है ।
८ - प्रश्न - वस्तुस्वरूप अनेकान्त है और जैन शास्त्र अनेकान्त विद्या प्रतिपादन करते हैं, तो सूत्र १ मे कथित निश्चय मोक्षमार्ग अर्थात् शुद्धरत्नत्रय और सूत्र २ में कथित निश्चय सम्यग्दर्शनको अनेकान्त किस भाँति घटते है ?
उत्तर- (१) निश्चय मोक्षमार्ग वही खरा ( - सच्चा ) मोक्षमार्ग है और व्यवहार मोक्षमार्ग सच्चा मोक्षमार्ग नही है; तथा निश्चय सम्यग्दर्शन वही सच्चा सम्यग्दर्शन है, व्यवहार सम्यग्दर्शन सच्चा सम्यग्दर्शन नही है । और
(२) वह स्वाश्रयसे ही प्रगट हो सकता है और पराश्रयसे कभी भी प्रगट हो सकता नही ऐसा अनेकान्त है ।
(३) मोक्षमार्ग परमनिरपेक्ष है
अर्थात् उसे परकी अपेक्षा नहीं है किन्तु तीनों काल स्वकी अपेक्षासे ही वह प्रगट हो सकता है, वह अनेकान्त है |
( ४ ) इसीलिये वह प्रगट होनेमें श्रांशिक स्वाश्रय और आंशिक पराश्रयपना है- ( - अर्थात् वह निमित्त, व्यवहार, भेद आदिका श्राश्रयसे है ) ऐसा मानना वह सच्चा अनेकान्त नही है परन्तु वह मिथ्या - एकान्त है, इसप्रकार निःसदेह नक्की करना वही अनेकान्त विद्या है ।
(५) सच्चा मोक्षमार्ग स्वाश्रयसे भी हो और ऐसा माना जाये तो उसमे निश्चय और ( जो परस्पर विरुद्धता लक्षरण सहित एकमेक हो जाय - निश्चय और व्यवहार जाय; अतः ऐसा कभी होता नही ।
पराश्रयसे भी हो, व्यवहारका स्वरूप है वह न रहकर ) दोनोंका लोप हो