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अध्याय १ सूत्र ३२
उत्तरसदसतोरविशेषाद्यहच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ॥३२॥
अर्थ:-[यहच्छोपलब्धः] अपनी इच्छासे चाहे जैसा (Whims) ग्रहण करनेके कारण [ सत् असतोः ] विद्यमान और अविद्यमान पदार्थों का [मविशेषात्] भेदरूप ज्ञान ( यथार्थ विवेक ) न होनेसे [उन्मत्तवत्] पागलके ज्ञानकी भॉति मिथ्यादृष्टिका ज्ञान विपरीत अर्थात् मिथ्याज्ञान ही होता है।
टीका (१) यह सूत्र बहुत उपयोगी है । यह 'मोक्षशास्त्र है। इसलिये अविनाशी सुखके लिये सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप एक ही मार्ग है यह पहिले सूत्र बताकर, दूसरे सूत्रमे सम्यग्दर्शनका लक्षण बताया है। जिसकी श्रद्धासे सम्यग्दर्शन होता है वे सात तत्त्व चौथे सूत्रमे बताये हैं, तत्त्वोको जाननेके लिये प्रमाण और नयके ज्ञानोंकी आवश्यकता है ऐसा ६ वे सूत्रमे कहा है, पाँच ज्ञान सम्यक है इसलिये वे प्रमाण है, यह ९-१० वे सूत्र मे वताया है और उन पाँच सम्यग्ज्ञानोका स्वरूप ११ से ३० वे सूत्र तक बताया है।
(२) इतनी भूमिका बाँधनेके बाद मति श्रुत और अवधि यह तीन मिथ्याज्ञान भी होते है; और जीव अनादिकालसे मिथ्यादृष्टि है इसलिये वह जवतक सम्यक्त्वको नही पाता तबतक उसका ज्ञान विपर्यय है, यह ३१ वे सूत्रमें बताया है। सुखके सच्चे अभिलाषीको सर्व प्रथम मिथ्यादर्शनका त्याग करना चाहिये-यह बतानेके लिये इस सूत्रमे मिथ्याज्ञान-जो कि सदा मिथ्यादर्शन पूर्वक ही होता है-उसका स्वरूप बताया है।
(३) सुखके सच्चे अभिलाषीको मिथ्याज्ञानका स्वरूप समझानेके लिये कहा है कि
१-मिथ्यादृष्टि जीव सत् और असत्के बीचका मेद ( विवेक ) नही जानता, इससे सिद्ध हुआ कि प्रत्येक भव्य जीवको पहिले सत् क्या है और असत् क्या है इसका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करके मिथ्याज्ञानको दूर करना चाहिये।